Assignment: Physical Education and Yoga, Minor—3, Semester—4

चित्र
आसन का अर्थ एवं महत्त्व Asana  An  āsana  ( Sanskrit :  आसन ) is a body posture, originally and still a general term for a  sitting meditation pose , and later extended in  hatha yoga  and modern  yoga as exercise , to any type of position, adding reclining,  standing , inverted, twisting, and balancing poses. The  Yoga Sutras of Patanjali  define "asana" as स्थिरसुखमासनम्  sthira sukham āsanam  "[a position that] is steady and comfortable". [ Patanjali mentions the ability to sit for extended periods as one of the  eight limbs of his system . Asanas are also called  yoga poses  or  yoga postures  in English. The 10th or 11th century  Goraksha Sataka  and the 15th century  Hatha Yoga Pradipika  identify 84 asanas. Asanas were claimed to provide both spiritual and physical benefits in medieval hatha yoga texts. More recently, studies have provided evidence that they imp...

Tally

 

Tally-Book-PDF-hindi.pdf

Tally Notes in Hindi PDF





लेखांकन शब्दावली 

व्यापार (Trade) - लाभ कमाने के उद्देश्य से किया गया वस्तुओं का क्रय या विक्रय व्यापार कहलाता है।

पेशा (Profession) - आय अर्जित करने के लिए किया गया कोई भी काम या कोई भी साधन जिसके लिए पूर्व प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है वह पेशा कहलाता है।

व्यवसाय (Business) - ऐसा कोई भी वैधानिक काम जो आय या लाभ प्राप्त करने के उद्देश्य से किया गया हो, व्यवसाय कहलाता है।

व्यवसाय एक व्यापक शब्द है जिसके अंतर्गत उत्पादन, वस्तुओं या सेवाओं का क्रय-विक्रय, बैंक, बीमा, परिवहन, कंपनियाँ आदि आते हैं। व्यापार व पेशा भी इसी के अंतर्गत आते हैं।

लेन-देन (Transaction) - व्यवसाय में माल, मुद्रा या सेवा के पारस्परिक व्यवहार या आदान-प्रदान को लेन-देन कहते हैं और ये सभी मुद्रा द्वारा मापे जाते हैं। चूँकि ये मुद्रा से सम्बन्धित हैं इसलिए इन्हें Financial Transaction भी कहते हैं। इसमें मुद्रा का भुगतान तुरंत या भविष्य में हो सकता है।

नकद लेन-देन (Cash Transaction) - जब सौदे का तुरंत भुगतान किया जाता है तब वह नकद लेन-देन (Cash Transaction) कहलाता है।

उधार लेन-देन (Credit Transaction) - जब भुगतान भविष्य में किया जाता है तब उसे उधार लेन-देन (Credit Transaction) कहते हैं।

माल (Goods) - माल उस वस्तु को कहते हैं जिसका क्रय-विक्रय या व्यापार किया जाता है। माल के अंतर्गत वस्तुओं के निर्माण हेतु प्राप्त कच्ची सामग्री, अर्ध निर्मित सामग्री या तैयार वस्तुएं भी हो सकती हैं।

उदाहरण के लिए वस्त्र विक्रेता द्वारा खरीदा गया कपड़ा, शक्कर मिल द्वारा खरीदा गया गन्ना व निर्मित शक्कर, फर्नीचर के व्यापारी द्वारा फर्नीचर बनाने के लिए खरीदी गई लकड़ी व तैयार फर्नीचर अनाज के व्यापारी द्वारा खरीदा गया अनाज उन व्यापारियों के लिए माल है।

क्रय (Purchase) - पुनः विक्रय के उद्देश्य यानी बेचने के उद्देश्य से व्यापार में खरीदा गया माल क्रय या खरीदी कहलाता है ।

व्यापार में माल को नकद या उधार खरीदा जा सकता है जिसे Cash Purchase / Credit Purchase कहते हैं।

विक्रय (Sales) - किसी भी व्यापार में कोई माल, लाभ कमाने के उद्देश्य से बेचा जाता है तो यह Sales कहलाता है।

व्यापार में माल को नकद या उधार बेचा जा सकता है, जिसे Cash Sales / Credit Sales कहते हैं ।

नकद और उधार विक्रय को मिलाकर कुल विक्रय यानी Total Sales को टर्नओवर कहा जाता है।
राजस्व (Revenue) - रेवेन्यू से आशय ऐसी राशि से है जो माल अथवा सेवाओं के विक्रय से नियमित रूप से प्राप्त होती है साथ ही व्यवसाय के दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों से प्राप्त होने वाली राशियां जैसे - किराया, ब्याज, कमीशन, डिस्काउंट आदि भी रेवेन्यू कहलाते हैं।

आय (Income) - एक व्यक्ति या संगठन की आय यानी Income वह धन (Money) है जो वे कमाते हैं या प्राप्त करते हैं। वैसे आय एक व्यापक शब्द है। इसमें लाभ (profit) भी शामिल रहता है। आय दो प्रकार की होती है।

1. प्रत्यक्ष आय (Direct Income) - इसके अंतर्गत ऐसी सभी प्राप्तियां आती हैं जो हमारे मुख्य कार्य से प्राप्त होती हैं। जैसे व्यापार की स्थिति में यदि आप कुछ बेच रहे हैं तो उसका जो भी मूल्य प्राप्त हो रहा है वह Direct Income में आएगा 

2. अप्रत्यक्ष आय (Indirect Income) - मुख्य व्यवसाय के अलावा जो भी इनकम होती है वह अप्रत्यक्ष आय (Indirect Income) कहलाती है।

व्यय (Expenses)- एक व्यक्ति या संगठन का व्यय यानी Expenses वह धन (Money) है, जो हम अपने काम के दौरान कुछ करते हुए खर्च करते हैं। 

यह भी दो प्रकार का होता है -

1. प्रत्यक्ष व्यय (Direct Expenses)- इसके अंतर्गत हमारे मुख्य कार्य से सम्बन्धित जो भी सीधे खर्च होते हैं वे आते हैं। जैसे व्यापार की स्थिति में यदि आप बेचने के लिए कुछ खरीदते हैं या खरीदे हुए माल पर सीधे कोई खर्च करते हैं तो उस पर जो धन खर्च होता है, वह प्रत्यक्ष व्यय यानी Direct Expenses कहलाता है।
2. अप्रत्यक्ष व्यय (Indirect Expenses)- इनका संबंध वस्तु के क्रय या उसके निर्माण से ना होकर वस्तु की बिक्री या कार्यालय व्यय से संबंधित होता है। सरल शब्दों में कह सकते हैं मुख्य व्यवसाय से सम्बन्धित जो भी सीधे खर्च होते हैं उनको छोड़कर शेष सभी खर्च इसके अंतर्गत आते हैं।

ब्याज (Interest)- व्यापार में जब हम किसी से कर्ज़ (Loan) लेते हैं या फिर किसी को लोन देते हैं तो उस लोन राशि के उपयोग के बदले में लोन देने वाले को एक निश्चित दर से प्रतिफल (Consideration) के रूप में कुछ राशि देनी पड़ती है जिसे ब्याज (Interest) कहते हैं ।

कई बार हम किसी सप्लायर से ज़्यादा दिनों की उधारी पर माल खरीदते हैं तो उस लम्बी अवधि के लिए भी हमको ब्याज देना पड़ सकता है।

इसके विपरीत यदि हमने किसी कस्टमर को लम्बी अवधि के लिए उधार माल बेचा तो उस पर हम ब्याज ले सकते हैं।

छूट (Discount)- व्यापारी द्वारा अपने ग्राहकों को दी जाने वाली छूट या रियायत को ही डिस्काउंट कहते हैं।

जब हमें किसी से डिस्काउंट प्राप्त होता है तो उसे Discount Received कहते हैं और जब किसी को डिस्काउंट दिया जाता है तो उसे Discount Allowed / Discount Given कहा जाता है |

यह डिस्काउंट दो प्रकार का हो सकता है :-

1. व्यापारिक बट्टा (Trade Discount)- व्यापारी माल बेचते समय ग्राहक को माल के मूल्य में कुछ राशि कम करता है या बिल की राशि में से कुछ राशि कम करता है, इस तरह की छूट को बिल में ही कम कर दिया जाता है, इसे ही Trade Discount कहते हैं।
2. नकद बट्टा (Cash Discount)- व्यापारिक चलन के अनुसार प्रत्येक ग्राहक को एक निश्चित अवधि में भुगतान करने की सुविधा प्रदान की जाती है। अगर ग्राहक निश्चित अवधि के पहले ही भुगतान कर दें तो उसे कुछ छूट दी जाती है जिसे Cash Discount यानी CD भी कहा जाता है। 

प्रायः यह डिस्काउंट प्रतिशत के रूप में दिया जाता है जैसे 2% Cash Discount या 3% Cash Discount इत्यादि।

कमीशन (Commission) - जब किसी व्यक्ति या संस्था को किसी का काम करने, जैसे कुछ खरीदने या बेचने में सहायता देने या अन्य कोई काम करने के प्रतिफल स्वरुप कुछ पारिश्रमिक मिलता है तो उसे कमीशन कहते हैं।

सेवा (Services)- वर्तमान में सेवा का अर्थ बड़ा व्यापक हो गया है। अपने व्यवसाय में हम कई प्रकार की सेवाओं का उपयोग या उपभोग करते हैं जैसे हम अपने कंप्यूटर Supplier से अपना कंप्यूटर सुधारते हैं या कंप्यूटर में कोई नया सॉफ्टवेयर सॉफ्टवेयर इंस्टॉल करवाते हैं तो ये उसके द्वारा दी गई सेवाएं हैं। इसी तरह मान लीजिए हमने किसी इलेक्ट्रीशियन से अपने यहां AC ठीक करवाया, तो यह भी उसके द्वारा दी गई सर्विस ही है।

ग्राहक (Customer)- हम जिसे माल बेचते हैं वह हमारा Customer कहलाता है।

विक्रेता (Supplier)- हम जिससे माल खरीदते हैं उसे Supplier कहते हैं।
लेनदार (Creditor) - वह व्यक्ति या संस्था जो किसी अन्य व्यक्ति या संस्था को उधार माल या सेवाएं बेचती है या रुपया उधार देती है, ऋण दाता या लेनदार यानी creditor कहलाती है। लेनदार को भविष्य में ऋणी से धनराशि प्राप्त होना होती है।

संक्षेप में, जब हम किसी से उधार माल खरीदते हैं, तो वह हमारा creditor कहलाता है।

देनदार (Debtor) - वह व्यक्ति या संस्था जो किसी अन्य व्यक्ति या संस्था से उधार माल या सेवाएं खरीदती है या रुपया उधार लेती है, ऋणी या देनदार यानी Debtor कहलाती है।

देनदार को भविष्य में एक निश्चित दिन यानी एक निश्चित अवधि के बाद पैसा चुकाना होता है।

संक्षेप में, जब हम किसी को उधार माल बेचते हैं तो वह हमारा Debtor कहलाता है।

पूंजी (Capital) - व्यापार का स्वामी (Owner) जो रूपया, माल, या संपत्ति व्यापार में लगाता है उसे पूंजी कहते हैं।

व्यापार में लाभ होने पर पूंजी बढ़ती है और हानि होने पर पूंजी घटती है।

स्वामी (Owner) - वह व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह जो व्यापार में आवश्यक पूंजी लगाते हैं, व्यापार का संचालन करते हैं, व्यापार की जोखिम सहन करते हैं तथा लाभ और हानि के अधिकारी होते हैं, व्यापार के स्वामी कहलाते हैं।
यदि किसी व्यापार का स्वामी/मालिक एक व्यक्ति है तो वह एकाकी व्यापारी यानी प्रोपराइटर कहलाता है, और यदि मालिक दो या दो से अधिक व्यक्ति हैं तो साझेदार यानी पार्टनर्स कहलाते हैं। पर यदि बहुत से लोग मिलकर संगठित रूप से कंपनी के रूप में कार्य करते हैं तो वे उस कंपनी के अंशधारी यानि शेयर होल्डर्स कहलाते हैं।

आहरण (Drawings) - व्यापार का स्वामी अपने निजी खर्च के लिए समय-समय पर व्यापार में से जो रुपया या माल निकालता है वह उसका आहरण या निजी खर्च कहलाता है।

सम्पत्ति (Assets) - व्यापार या व्यवसाय की ऐसी समस्त वस्तुएँ जो व्यापार या व्यवसाय के संचालन में सहायक होती हैं और जिन पर व्यवसायी का स्वामित्व होता है, संपत्ति कहलाती हैं। ये दो प्रकार की होती हैं - 1. स्थाई संपतियां 2. चालू संपतियां।

स्थाई संपतियां (Fixed Assets) - इनसे आशय उन संपतियों से है, जो व्यवसाय में दीर्घकाल तक रखी जाने वाली होती हैं यानी जिनका लाभ व्यापार में कई वर्षों तक मिलता रहता है और जो पुनः विक्रय के लिए नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए ज़मीन (Land), बिल्डिंग, फर्नीचर, कंप्यूटर, वाहन, मशीन आदि।

चालू संपतियां (Current Assets) - इनसे आशय उन संपत्तियों से है जो आमतौर पर एक वर्ष से कम समय में उपयोग की जाती हैं यानी जो लंबे समय तक व्यापार में नहीं रहती हैं। जैसे नकदी या जिन्हें आसानी से नकदी में बदला जा सके। जैसे देनदार (debtors), बैंक बैलेंस, स्टॉक इत्यादि।

दायित्व (Liabilities) - वे सभी ऋण (Loan) जो व्यापार को अन्य व्यक्तियों अथवा अपने स्वामी या स्वामियों को चुकाने होते हैं दायित्व यानी Liabilities कहलाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं - 1. स्थाई दायित्व (Fixed Liabilities) 2. चालू दायित्व (Current Liabilities)

स्थाई दायित्व (Fixed Liabilities) से आशय ऐसी देनदारियों से है जिनका भुगतान दीर्घकाल के पश्चात या व्यापार की समाप्ति पर करना होता है, जैसे - दीर्घकालीन ऋण (Long Term Loan), पूंजी (Capital), बिल्डिंग या लैंड को गिरवी रख कर बैंक से लिया हुआ Long Term Loan इत्यादि।

चालू दायित्व (Current Liabilities) से आशय ऐसी देनदारियों से है जिनका भुगतान निकट भविष्य में करना हो। प्रायः ये 1 साल से कम समय में चुकाना होती हैं यानी ये अस्थाई होती हैं और व्यापार संचालन में घटती-बढ़ती रहती हैं। जैसे - अल्पकालीन ऋण (Short Term Loan), लेनदार (Creditors) Bank Loan, CC Limit (कैश क्रेडिट लिमिट) आदि।

अदत्त व्यय (Outstanding Expenses) - ऐसे समस्त व्यय जिनकी सेवाएं तो प्राप्त कर ली गई हैं परंतु उनके मूल्य का भुगतान अभी तक नहीं किया गया है, जैसे कि वर्ष समाप्ति पर कर्मचारी की सैलरी बाकी है या मकान मालिक का किराया बाकी है यानी देना है किन्तु दिया नहीं गया है, तो वर्ष समाप्ति पर इसका प्रोविज़न करना होगा। इस तरह के प्रावधान (Provision) को अदत्त व्यय कहते हैं।

मूल्य-हास (Depreciation) - किसी वस्तु या संपत्ति के उपयोग से, समय व्यतीत हो जाने पर, मूल्यों में परिवर्तन से, नष्ट हो जाने या अन्य किसी कारण से जब सम्पत्ति के मूल्य में कमी आ जाती है तो इस मूल्य में होने वाली कमी को Depreciation कहते हैं।

वित्तीय वर्ष (Financial Year) - यह 12 माह की अवधि होती है जिसका हम लेखा जोखा प्रस्तुत करते हैं। चूँकि यह अवधि 12 माह की होती है इसीलिए 1 वर्ष कहलाती है।

हमारे भारत में यह अवधि यानी वित्तीय वर्ष (Financial Year) 1 अप्रैल से प्रारम्भ होकर 31 मार्च को समाप्त होता है।
































टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

लघु शोध प्रबन्ध प्रकाशित

असाइनमेंट: शारीरिक शिक्षा एवं योग, माइनर—3, सेमेस्टर—4

Assignment: Physical Education and Yoga, Minor—3, Semester—4