Assignment: Physical Education and Yoga, Minor—3, Semester—4

चित्र
आसन का अर्थ एवं महत्त्व Asana  An  āsana  ( Sanskrit :  आसन ) is a body posture, originally and still a general term for a  sitting meditation pose , and later extended in  hatha yoga  and modern  yoga as exercise , to any type of position, adding reclining,  standing , inverted, twisting, and balancing poses. The  Yoga Sutras of Patanjali  define "asana" as स्थिरसुखमासनम्  sthira sukham āsanam  "[a position that] is steady and comfortable". [ Patanjali mentions the ability to sit for extended periods as one of the  eight limbs of his system . Asanas are also called  yoga poses  or  yoga postures  in English. The 10th or 11th century  Goraksha Sataka  and the 15th century  Hatha Yoga Pradipika  identify 84 asanas. Asanas were claimed to provide both spiritual and physical benefits in medieval hatha yoga texts. More recently, studies have provided evidence that they imp...

शारीरिक शिक्षा, स्वास्थ्य एवं योग संदर्भ सामग्री

 


यूनिट 1

i. शारीरिक शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा।
शारीरिक शिक्षा के लक्ष्य एवं उद्देश्य।
विद्यालय के विभिन्न स्तरों पर शारीरिक शिक्षा की आवश्यकता एवं महत्व।
शारीरिक शिक्षा के सम्बन्ध में भ्रांतियां।
ii. स्वास्थ्य का प्रत्यय, आयाम एवं निर्धारक।
iii. स्वास्थ्य शिक्षा: प्रत्यय, लक्ष्य, उद्देश्य एवं क्षेत्र।
iv. विद्यालय स्वास्थ्य कार्यक्रम एवं स्वास्थ्य के विकास में शिक्षक की भूमिका।

यूनिट 2
i. शारीरिक फिटनेस: प्रत्यय, प्रभावित करने वाले कारक, लाभ एवं शारीरिक फिटनेस का निर्धारण।
ii. विद्यालय स्तर पर शारीरिक गतिविधियों की आवश्यकता एवं महत्व।
iii. खाद्य का वर्गीकरण, संतुलित आहार, विभिन्न पोषक तत्वों की भूमिका, विटामिन एवं उनकी भूमिका, कुपोषण, खाद्य मिलावट।

यूनिट 3
ii. त्वचा, मुख, नाखून, वस्त्र एवं स्नान इत्यादि की देखभाल। 
आवास व्यवस्था, जलापूर्ति, वाहित मल एवं उपयुक्त निस्तारण का संक्षिप्त लेखा-जोखा।
व्यक्तिगत एवं वातावरणीय स्वच्छता का विकास।
विद्यालय शिक्षकों के लिए प्राथमिक चिकित्सा के ज्ञान का महत्व।
लू लगना, सांप का काटना, कुत्ते का काटना, अस्थि भंग इत्यादि की प्राथमिक चिकित्सा।
iv. प्राथमिक चिकित्सा बॉक्स एवं विद्यालय में इसका महत्व।

यूनिटी 4
i. राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम
राष्ट्रीय क्षय रोग नियंत्रण कार्यक्रम
ii. यौन संचारित रोग नियंत्रण कार्यक्रम
राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम
पोलियो एवं कुष्ठ रोग नियंत्रण कार्यक्रम
iii. राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभिकरण—
विश्व स्वास्थ्य संगठन
संयुक्त राष्ट्र बाल कोष
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम

यूनिट 5
I. योग: परिचय, अर्थ, प्रकार एवं आवश्यकता।
योग के संबंध में भ्रांतियां।
ii. विभिन्न योगिक आसन, सूर्य नमस्कार एवं इसका महत्व।
iii. विद्यालय में ध्यान का महत्व।
विद्यालय में योगाभ्स का महत्व।
iv. शिक्षक के लिए योग का महत्व





































स्वास्थ्य शिक्षा का अर्थ एंव इसके लक्ष्य और उद्देश्य

स्वास्थ्य शिक्षा का अर्थ एंव इसके लक्ष्य और उद्देश्य- स्वास्थ्य शिक्षा वह शिक्षा है जिसके द्वारा स्वास्थ्य सम्बन्धी ज्ञान को व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर व्यावहारिक रूप में परिवर्तित करने का प्रयास किया जाता है, जिसमें न केवल एक व्यक्ति के स्वास्थ्य की रक्षा हो बल्कि संपूर्ण समाज के स्वास्थ्य की रक्षा की जा सके। स्वास्थ्य शिक्षा से अभिप्राय उन समस्त साधनों से है जो व्यक्ति को स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ज्ञान प्रदान करें। स्वास्थ्य शिक्षा सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक रूप से सम्पूर्ण विद्यालयी शिक्षा का एक अभिन्न अंग है। क्योंकि शिक्षा का एक महत्तवपूर्ण सामान्य उद्देश्य स्वास्थ्य निर्माण भी है, इसलिए स्कूल के सभी विषयों का इसमें अपना योगदान करना चाहिए। ऐसा करते समय वे स्वास्थ्य शिक्षा का एक अंग बन जाते हैं। संक्षेप में स्वास्थ्य शिक्षा वह प्रक्रिया है जो अर्जित किए हुए ज्ञान का अनुभव कराती है जिसका उद्देश्य ज्ञान के द्वारा शिक्षा और आचरण पर प्रभाव डालना है जो कि व्यक्ति और लोगां के स्वास्थ्य से सम्बन्धित है।

क्योंकि हर प्रकार की शिक्षा का पहला उद्देश्य अच्छा स्वास्थ्य है। क्रो व क्रो इसके महत्तव पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहते हैं, “यदि बच्चों, किशोरों तथा वयस्कों के शारीरिक, मानसिक तथा भावनात्मक स्वास्थ्य सुधार की ओर ध्यान न दिया जाए तो स्कूलों के विशाल भवन, शैक्षिक सामग्री का अतुल भंडार, योग्य अध्यापक, निरीक्षक तथा अन्य कार्यकर्ता, विशेषज्ञों द्वारा बनाई गई पाठ्यचर्या, मूल्यांकन के अच्छे ढंग आदि सभी शैक्षिक क्रियाएँ अपने उद्देश्य की प्राप्ति में असफल हो जाती हैं।” शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति बच्चों के स्वास्थ्य पर निर्भर है। स्वास्थ्य शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्ति के शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य दोनों से होता है। इसलिए स्वास्थ्य शिक्षा अध्यापक से सम्बन्ध रखती है और आधुनिक अध्यापक बच्चे के मानसिक विकास तथा उसके भावी निर्माण को ही शिक्षा का लक्ष्य नहीं मानता। वह जितना महत्त्व मानसिक शक्तियों के विकास को देता है उतना ही महत्त्व स्वास्थ्य शिक्षा का होता है क्योंकि मानसिक विकास से पहले बच्चे का शारीरिक विकास होता है यदि बच्चे का स्वास्थ्य ही बिगड़ जाये तो कुशलताएँ सिखाने व पुस्तकें रटाने का कोई लाभ नहीं है। अतः स्वास्थ्य शिक्षा का उद्देश्य छात्र को ऐसे साधन प्रदान करना है जिनकी सहायता से वे अपनी क्षमता तथा शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व सामाजिक गुणों का पूर्ण विकास कर सकें।

उपरोक्त विवरण के आधार पर हम स्वास्थ्य शिखा के अर्थ को विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट कर सकते हैं।

साधारण तौर पर – “स्वास्थ्य शिक्षा एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा लोगों की स्वास्थ्य सबन्धी आदतों में परिवर्तन लाया जा सकता है और स्वास्थ्य के प्रति उनके दृष्टिकोण और ज्ञान में वांछनीय सुधार किया जा सकता है।”

अतः इस आधार पर स्वास्थ्य शिक्षा जीने की एक कला है’ हम इस कला का प्रयोग स्वास्थ्य शरीर में स्वास्थ्य मन प्राप्त करने के लिए करते हैं।

डॉ. थॉमस वुड के अनुसार, “स्वास्थ्य शिक्षा उन सभी अनुभवों का जोड़ है, जो हमारे व्यक्तिगत, सामाजिक, सामुदायिक स्वास्थ्य से सम्बन्धित आदतों, प्रवृत्तियों तथा ज्ञान पर लाभदायक प्रभाव डालते हैं।”

स्वास्थ्य शिक्षा समिति (1973) न्यूयार्क के प्रतिवेदन के अनुसार- “स्वास्थ्य शिक्षा वह प्रक्रिया है जो स्वास्थ्य सूचना और स्वास्थ्य व्यवहारों के मध्य खाई को पाटती है।”

उपरोक्त परिभाषा के अनुसार स्वास्थ्य शिक्षा को अनुप्रेरित करती है कि वह सूचना लेकर कुद ऐसा करे जिससे वह अधिक स्वस्थ बनने के लिए हानिप्रद कार्यों की अवहेलना कर सके और ऐसी आदतों का निर्माण कर सके जो उपयोगी हैं।

रूथ ई. ग्राउट का अभिमत स्वास्थ्य शिक्षा के बारे में कुछ और विस्तार से है, उनके अनुसार, “स्वास्थ्य शिक्षा शैक्षिक प्रक्रिया के माध्यम से स्वास्थ्य के विषय में जो कुछ ज्ञात है उसे उचित व्यकिगत एवं सामुदायिक व्यवहार के नमूनों में परिवर्तित करने का नाम हैं।

यह परिभाषा स्वास्थ्य के बारे में तीनों बातों पर ध्यान आकर्षित करती है-

  1. स्वास्थ्य के विषय में जो ज्ञात है— अर्थात् स्वास्थ्य के विषय में मूलभूत अवधारणाएँ ।
  2. उचित व्यक्तिगत एवं सामुदायिक व्यवहार के नमूने – यानी स्वास्थ्य सम्बन्धी अन्तिम लक्ष्य तथा
  3. शैक्षिक प्रक्रिया के माध्यम से परिवर्तन।

सरल शब्दों में बच्चे को स्वास्थ्य सम्बन्धी मूलभूत अवधारणाएँ स्पष्ट होनी चाहिए। उसे यह ज्ञात होना चाहिए कि ‘क्यों करना है’, ‘क्या करना है’ और ‘कैसे करना है’- उदाहरण के तौर पर भोजन करने से पहले हाथ धोना आवश्यक है। क्यों? क्योंकि यह बीमारी के खतरे को कम करता है।

अतः स्वास्थ्य शिक्षा, निःसन्देह एक मानवीय रचना है। यद्यपि यह कई प्रकार से अपरिपक्व है तो भी यह एक ऐसी अवधारणा है जिसे व्यवस्थित किया जा सकता है।

शिक्षा तथा स्वास्थ्य शिक्षा

शिक्षा से अभिप्राय शिक्षा ग्रहण करना ही नहीं बल्कि व्यक्ति की शारीरिक मानसिक तथा भौतिक शक्तियों का निर्माण करना है। इसका उद्देश्य व्यक्ति की आदतों को बदलना है तथा उसके चरित्र को बनाना है—

आधुनिक युग में शिक्षा के तरीके बदल गए हैं तथा संपूर्ण शिक्षा पद्धति में क्रन्ति आ गई है। वह दिन गए जब शिक्षा देते समय व्यक्ति की इच्छा उसके स्वभाव तथा उसकी शक्ति पर ध्यान नहीं दिया जाता था, परन्तु आधुनिक शिक्षा पद्धति में व्यक्ति की आन्तरिक शक्तियों व क्षमता के विकास पर जोर दिया गया है जो कि शिक्षा द्वारा उसकी आदतों, स्वभाव, विचारों पर प्रभाव डालती है तथा मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, भावात्मक तथा सर्वांगीण विकास करती है। जबकि स्वास्थ्य शिक्षा का तात्पर्य उन सम्पूर्ण साधनों से है जो मानव को स्वास्थ्य के विषय में जानकारी प्रदान करते हैं।

शिक्षा तथा स्वास्थ्य शिक्षा में घनिष्ट सम्बन्ध है। यद्यपि स्वास्थ्य शिक्षा का क्षेत्र सीमित है, क्योंकि इसका सम्बन्ध केवल मनुष्य के स्वास्थ्य से है और शिक्षा क्षेत्र विस्तृत है क्योंकि यह व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करती है तथापि ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक छात्र को जहां अक्षर ज्ञान के साथ सर्वांगीण विकास के लिए शिक्षा ग्रहण करना आवश्यक है, वहीं उसको अपने को स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए स्वास्थ्य सम्बन्धी नियमों को जानने के लिए स्वास्थ्य शिक्षा ग्रहण करना भी आवश्यक है। इसके बाद ही शिक्षक छात्रों के शैक्षणिक विकास के साथ-साथ उनका मानसिक तथा शारीरिक विकास करने में सफल हो सकेगा। अतः स्पष्ट है कि शिक्षा व स्वास्थ्य शिक्षा एक दूसरे के बगैर अधूरी हैं।

स्वास्थ्य शिक्षा के लक्ष्य और उद्देश्य

स्वास्थ्य शिक्षा के लक्ष्य व उद्देश्यों को समझने से पहले हमें अनके आधार को जानना होगा। सामान्यतः हम इन दोनों का अर्थ एक ही लेते हैं जबकि यह दोनों भिन्न हैं।

लक्ष्य- स्वास्थ्य शिक्षा का लक्ष्य शारीरिक तथा माँसपेशियों का ही विकास नहीं है, बल्कि इसका लक्ष्य शारीरिक, मानसिक, सामाजिक तथा सांवेगिक पक्षों का भी विकास करना है। स्वास्थ्य शिक्षा का उद्देश्य (लक्ष्य) लोगों को सक्रिय रूप से उन कार्यक्रमों और उन सेवाओं में लगाना और भागीदार बनाना है जिनका आयोजन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को हल करने के लिए किया जाता हैं अर्थात् लोगों को अपने स्वास्थ्य सुधार के लिए सिखाना और सीखने में सहायता देना स्वास्थ्य शिक्षा का उद्देश्य है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की स्वास्थ्य शिक्षा पर विशेषज्ञ समिति के अनुसार — “स्वास्थ्य शिक्षा का उद्देश्य लोगों की अपने कार्यों और प्रयासों द्वारा स्वास्थ्य प्राप्त करने में सहायता करना है।”

इस प्रकार स्वास्थ्य शिक्षा जीवन का वह गुण उत्पन्न करने का उद्देश्य सामने रखती है जो कि एक व्यक्ति को अधिक जीने और अच्छे से अच्छे ढंग से सेवा करने योग्य बनाए। अतः स्वास्थ्य शिक्षा के लक्ष्य का अभिप्राय यह हुआ कि यह मनुष्य को समाज में सुखी, व्यवस्थित, संतोषजनक और स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के ढंगों का ज्ञान कराती है। सी दी. गुड के अनुसार, “लक्ष्य पूर्व निधारित साध्य होता है, जो किसी क्रिया का मार्गदर्शन करता है। “

उद्देश्य (Objectives) – उद्देश्य को परिभाषित करते हुए सी.वी. गुड कहते हैं, “स्कूल . द्वारा निर्देशित अनुभवों के द्वारा छात्रों के व्यवहार में आया वांछित परिवर्तन ही उद्देश्य है। ” 

सी.ई. टर्नर के अनुसार- “छात्रों का समुचित विकास स्वास्थ्य शिक्षा पर निर्भर करता है।” अतः उनके लिए शिक्षा के निम्न उद्देश्य होने चाहिए-

  1. विद्यालय में स्वास्थ्यपूर्ण वातावरण बनाए रखना।
  2. सभी छात्रों के स्वास्थ्य का निरीक्षण करना व निर्देश देना।
  3. व्यक्तिगत सफाई व स्वच्छता के बारे में न केवल ज्ञान प्रदान करना बल्कि अभ्यास भी कराना।
  4. बच्चों में ऐसी स्वाभाविक आदतों का विकास करना जो स्वास्थ्यप्रद हों।
  5. स्कूल, घर और समाज में उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए आपसी सहयोग की भावना विकसित करना।
  6. संक्रामक रोगों से बचने के उपाय करना।
  7. सभी छात्रों में स्वास्थ्य संबंधी ज्ञान तथा अभिवृत्ति का विकास करना।

स्वास्थ्य शिक्षा के सामान्य लक्ष्य की पूर्ति के लिए – रूथ ई. ग्राऊट ने भी कुछ विशिष्ट उद्देश्य बताए हैं जो सामान्य शिक्षा के उद्देश्यों से सम्बद्ध हैं। ग्राऊट के अनुसार ये उद्देश्य हैं-

  1. व्यक्ति का सर्वाधिक विकास (शारीरिक व भावनात्मक)
  2. स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से मानवीय सम्बन्धों की बेहतर व्यवस्था |
  3. स्वास्थ्य सम्बन्धी तथ्यों एवं सिद्धांतों का आर्थिक दक्षता के संदर्भ में प्रयोग |
  4. नागरिक उत्तरदायिकत्व (विशेषकर स्वास्थ्य के क्षेत्र में)

प्रो. एण्डरसन ने स्वास्थ्य शिक्षा के उद्देश्यों के बारे में अपने विचार निम्न से व्यक्त किए हैं।-

  1. छात्रों को स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ज्ञान प्रदान करना।
  2. विभिन्न प्रकार की बीमारियों तथा दोषों का ज्ञान प्राप्त करना और उनकी रोकथाम करना।
  3. अपने वातावरण की स्वच्छता की महत्ता समझना।
  4. छात्रों के लिए विशिष्ट स्वास्थ्य कार्यक्रम आयोजित करना।
  5. प्रत्येक छात्र के स्वास्थ्य की जांच करना तथा स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं को समझना।
  6. छात्रों में अच्छे स्वास्थ्य के प्रति रूचि तथा अभिरूचियाँ विकसित करना।
  7. सामाजिक स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता विकसित करना।

केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के अनुसार स्वास्थ्य शिक्षा के निम्न उद्देश्य दर्शाए गए हैं-

  1. स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं की पहचान करने की क्षमता को विकसित करना।
  2. स्वास्थ्य के सम्बन्ध में वैज्ञानिक विचारधारा को स्वीकार करना।
  3. दूसरों के समक्ष अच्छे स्वास्थ्य का आदर्श प्रस्तुत करने की योग्यता उत्पन्न करना।
  4. स्वास्थ्य के सम्बन्ध में उचित निर्णय लेने की क्षमता पैदा करना ।
  5. स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं के निदान में रूचि विकसित करना।
स्वास्थ्य शिक्षा का क्षेत्र क्या है?

स्वास्थ्य शिक्षा एक बहुत बड़ा शब्द है। इसका बहुत व्यापक क्षेत्र है। यह स्वास्थ्य के अलावा कई अन्य पहलुओं पर निर्भर और निकटता से जुड़ा हुआ है। इन पहलुओं में आवास, आर्थिक सुरक्षा, कृषि या औद्योगिक समृद्धि आदि शामिल हैं। आम तौर पर, स्वास्थ्य शिक्षा में निम्नलिखित शामिल हैं:

1. मानव शरीर के विकास में भोजन और उसका महत्व।

2. जल, वायु, प्रकाश, शारीरिक व्यायाम, मनोरंजन, विश्राम और निद्रा आदि।

3. असामान्य स्थिति और बुरी आदतें। इनका प्रतिकूल प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है।

4. विभिन्न रोग और रोग। उनके कारण और तरीके और उनकी रोकथाम और इलाज के साधन।

5. मानसिक स्वास्थ्य, यौन स्वच्छता, घरेलू और सामुदायिक स्वच्छता।

6. आपातकालीन और प्राथमिक चिकित्सा।

इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वास्थ्य शिक्षा का क्षेत्र वास्तव में बहुत व्यापक है। यह मानव जीवन की सभी शाखाओं, अर्थात् व्यक्तिगत जीवन, स्कूली जीवन और सामुदायिक जीवन को छूता है






शारीरिक फिटनेस का अर्थ एवं परिभाषाएं
शारीरिक फिटनेस के संदर्भ में भिन्न भिन्न विचार प्रचलित हैं कुछ विचारको ने इसे किए जाने वाले कार्य से संबंधित प्रिया कहां है कुछ विचारको ने इसे सुगठित शारीरिक संगठन माना है तो कुछ ने इसे शरीर की क्रियात्मक प्रणाली का उचित विकास के रूप में स्वीकार किया है। वस्तुतः इस शब्द के व्यापक अर्थ हैं। यह व्यक्ति में केवल कुछ शारीरिक गुणों यथाशक्ति गति एवं सहनशक्ति के विकास से अधिक है। साधारण शब्दों में जो व्यक्ति ऊर्जावान उत्साही और दिए गए काम को पूर्ण निष्ठा से करने में सक्षम होता है। उसे ही शारीरिक रूप से फिट कहा जा सकता है।

शारीरिक फिटनेस का स्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न होता है। यह व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले कार्य आकार संरचना आयु लिंग और अनुकूलन क्षमता की प्रकृति पर निर्भर करता है। इसी प्रकार भिन्न भिन्न खेलों में फिटनेस की आवश्यकता में भी बदलाव आता है। शारीरिक फिटनेस में गामक यंत्र जैविक यंत्र और मानव तंत्र कुशलता पूर्वक कार्य निष्पादन करते हैं।

शारीरिक स्वास्थ्य और खेल पर संयुक्त राज्य अमेरिका के अध्यक्ष परिषद ने शारीरिक फिटनेस और खेलकूद को निम्न रूप में परिभाषित किया है शारीरिक फिटनेस व्यक्ति की दैनिक कार्यों को पूर्ण ऊर्जा शक्ति और सतर्कता से बिना थके कार्य करने की क्षमता है। इसके बाद भी व्यक्ति में खाली समय का सदुपयोग करने और अप्रत्याशित आपात स्थिति में से निपटने के लिए पर्याप्त ऊर्जा विद्यमान रहती है।

वेबस्टर शब्दकोश के अनुसार - "शारीरिक फिटनेस व्यक्ति की दैनिक कार्यों को बिना थके करने की क्षमता है। इसके बाद भी व्यक्ति में शारीरिक गतिविधियों में भाग लेने और किसी आपात स्थिति से निपटने की भी पर्याप्त क्षमता विद्यमान रहती है।"

डेविड आर लैम्ब के अनुसार - "शारीरिक फिटनेस सफलता पूर्वक जीवन की वर्तमान और संभावित चुनौतियों का सामना करने की क्षमता है।"

ब्रूनो वैले के अनुसार - "शारीरिक फिटनेस किसी व्यक्ति की जैव-गति क्षमता पर निर्भर करती है और यह जैव गतिक क्षमता कार्यात्मक और चयापचय क्षमता के संयोजन से निर्मित होती है।"

डॉ. क्रॉस के अनुसार - "शारीरिक फिटनेस किसी व्यक्ति की जीवन शैली से सम्बंधित तनावों का सफल अनुकूलन है।"


शारीरिक फिटनेस के प्रकार

शारीरिक फिटनेस को दो प्रकार की श्रेणी में विभाजित किया गया है - 1. स्वास्थ्य से संबंधित शारीरिक फिटनेस और 2. कौशल से संबंधित शारीरिक फिटनेस।

1. स्वास्थ्य से संबंधित फिटनेस - इसका तात्पर्य है कि शरीर के विभिन्न तंत्र स्वस्थ हैं और पूर्ण क्षमता से कार्यरत हैं एवं जिनके फलस्वरूप व्यक्ति विभिन्न दैनिक कार्यों को पूर्ण सजगता से निष्पादित करता है और खाली समय का सदुपयोग विभिन्न आनंददाई गतिविधियों के द्वारा करता है। यह हृदय रोगों से संबंधित जोखिम कारकों पर सकारात्मक प्रभाव डालता है। यह कमर दर्द मधुमेह ऑस्टियोपोरोसिस और मोटापे के खतरे को भी कम करने में प्रभावी है। इसके अतिरिक्त या भावनात्मक तनाव का प्रबंधन करने का भी एक प्रभावी उपाय है। अन्य शब्दों में स्वास्थ्य से संबंधित फिटनेस व्यक्ति को स्वस्थ प्रसन्नता एवं जीवन का पूर्ण आनंद लेने में सक्षम बनाती है।

2. कौशल संबंधित फिटनेस इसमें गामक फिटनेस के समान ही लाभदायक है किंतु यह कार्य खेल विशेष के लिए आवश्यक गामक कौशलों से भी संबंधित है। यही कारण है कि कौशल से संबंधित फिटनेस को गामक फिटनेस है भी कहा जाता है।


शारीरिक फिटनेस के घटक

शारीरिक फिटनेस के अंतर्गत आने वाले स्वास्थ्य एवं कौशल संबंधित फिटनेस के घटकों के संबंध में महत्वपूर्ण बात है। जहां स्वास्थ्य संबंधी फिटनेस मांस पेशियां शक्ति मांस पेशी सहनशक्ति कार्डियोवैस्कुलर सहनशक्ति लचीलापन एवं मोटापे से मुक्ति या शारीरिक संरचना इन पांच घटकों से मिलकर बनता है। वही कौशल संबंधी फिटनेस स्वास्थ्य संबंधी फिटनेस के पांच घटकों के साथ पांच और अतिरिक्त घटकों को सम्मिलित करता है यथा मांस पेशीय बल चपलता गति संतुलन और प्रतिक्रिया। इस प्रकार कौशल संबंधी फिटनेस कुल 10 घटकों का समायोजन है।

स्वास्थ्य संबंधी फिटनेस के घटक

1. मांसपेशीय शक्ति - 
यह मांस पेशी या मांस पेशी समूह को अधिकतम शक्ति उत्पन्न करने की क्षमता है। मांस पेशी शक्ति को डायनमोमीटर एवं टेंशियोमीटर उपकरणों की सहायता से मापा जा सकता है जाता है। यह उपकरण मांस पेशी समूह द्वारा एकल प्रयास में लगाए गए बल की मात्रा का मापन करते हैं।

मांसपेशीय शक्ति का विकास - भार प्रशिक्षण ,अनुकूलन अभ्यास ,मेडिसिन बॉल व्यायाम, प्लाइओमेट्रिक व्यायाम, सर्किट ट्रेनिंग, डंबल अभ्यास आदि।

2. मांसपेशिय सहनशक्ति - 
मांसपेशीय समूह अपनी पूर्ण क्षमता के साथ जितनी समय अवधि तक कार्य कर सकती हैं। उसे मांसपेशीय सहनशक्ति कहते हैं। अन्य शब्दों में किसी कार्य को करने में जब मांस पेशी थकान शीघ्र होती है तो मांसपेशीय सहनशक्ति कम होती है।

मांसपेशीय सहनशक्ति का विकास - दौड़ना, तैराकी ,रस्सी कूदना, साइकिल चलाना, सीढ़ियां चढ़ना, तेज पैदल चलना, क्रास कंट्री दौड़, भार प्रशिक्षण, सर्किट ट्रेनिंग, पारले की ट्रेनिंग, हिल रनिंग आदि।

3. कार्डियोवैस्कुलर सहनशक्ति - 
यह हृदय और फेफड़ों की कार्य क्षमता है जिसके अंतर्गत शरीर की कार्यशील मांसपेशियों को रक्त आपूर्ति की जाती है। इसरत में झूलन गोली तक सीजन का मांस पेशी कोशिकाएं उपयोग कर सहनशक्ति व्यायाम के लिए आवश्यक ऊर्जा का उत्पादन करते हैं।

4. लोच शीलता या नम्यता -
यह शरीर के जोड़ों को गति प्रदान करने की क्षमता है जिसमें बिना किसी अनुचित दबाव या गति के अधिकतम सीमा क्षेत्र में जोड़ों की गति संभव हो पाती है। उदाहरणार्थ सीधी खड़ी मुद्रा में बिना घुटनों को मोड़ते हुए अपने दोनों हाथों से पैर की उंगलियों को स्पष्ट करना।

लोच शीलता का विकास - स्टैटिक स्ट्रैचिंग ,डायनेमिक स्ट्रैचिंग, बैलेस्टिक स्ट्रैचिंग, एसिस्टेड स्ट्रैचिंग, योगासना अभ्यास आदि।

5. मोटापे में मुक्ति या शरीर संरचना - 
मोटापा शरीर में वसा की अधिक मात्रा संचय करने को संदर्भित करता है जिसके कारण कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं। जैसे कोरोनरी हृदय रोग उच्च रक्तचाप मधुमेह एवं श्वसन संबंधी समस्याएं। मोटापे को व्यक्ति की शारीरिक भार के सापेक्ष शरीर में पाई जाने वाली वसा की मात्रा के संदर्भ में मापन किया जाता है।


कौशल संबंधी फिटनेस के घटक

कौशल संबंधी फिटनेस में स्वास्थ्य संबंधी फिटनेस के उपर्युक्त पांच घटकों के अतिरिक्त निम्न पांच घटक सम्मिलित होते हैं

1. मांसपेशीय बल - यह मांस पेशियों की कम से कम समय में अधिकतम बल उत्पन्न करने की क्षमता है। उदाहरणार्थ वालीबॉल में मैच करना।

2. चपलता - यह तेजी से संपूर्ण शरीर के अंगों की स्थिति और दिशा बदलने की क्षमता है। उदाहरणार्थ कबड्डी में रीडर द्वारा रेड करना।

3. गति - शारीरिक मांस पेशियों की गति परिवर्तन की दर को मांस पेशी गति कहते हैं। उदाहरणार्थ 100 मीटर की दौड़।

4. संतुलन - गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध शरीर को साम्यावस्था में रखने की क्षमता को संतुलन कहते हैं। मूलता संतुलन दो प्रकार के होते हैं। जैसे स्थैतिक एवं गतिक।

a. स्थैतिक संतुलन - स्थैतिक अवस्था में शरीर को साम्यावस्था में बनाए रखने की क्षमता को स्थैतिक संतुलन कहते हैं। उदाहरणार्थ एक पैर पर खड़े रहना तथा राइफल शूटिंग के समय शरीर को स्थैतिक संतुलन की अवस्था में रखना।

b. गतिक संतुलन - गति अवस्था में शरीर को साम्यावस्था में बनाए रखने की क्षमता को गतिक संतुलन कहते हैं। उदाहरणार्थ पैदल चाल दौड़ नृत्य में गतिक संतुलन आवश्यक है।

5. प्रतिक्रिया समय उद्दीपन की प्रस्तुति और उसके प्रति पहली प्रतिक्रिया के बीच के समय अंतराल को प्रतिक्रिया समय कहते हैं। दूसरे शब्दों में किसी दृश्य या श्रव्य उद्दीपक के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करने में लगे समय को प्रतिक्रिया समय कहते हैं। उदाहरणार्थ 100 मीटर दौड़ में पिस्टल की आवाज सुनकर एथलीट दौड़ आरंभ करते हैं।
शारीरिक फिटनेस को प्रभावित करने वाले कारक एवं लाभ

1.आयु -

जीवन काल को मुख्यतः पांच भागों में विभाजित किया जाता है शिशु काल बचपन किशोरावस्था प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था। किशोर रावल कॉल एवं वृद्ध काल की फिटनेस संबंधी आवश्यकताओं में भिन्नता होती है। जहां किशोरों में शारीरिक परिवर्तन और शारीरिक अंगों का विकास होता है वही प्राउड काल में परिपक्वता के स्तर को प्राप्त कर लिया जाता है। इसी प्रकार वृद्धावस्था में शारीरिक क्रियाकलाप घटते जाते हैं। अतः हर आयु वर्ग के लिए एक जैसा फिटनेस कार्यक्रम नहीं होना चाहिए।

2. लिंग -
किशोरावस्था से पूर्वकाल में लड़के लड़कियां का वजन और अन्य शारीरिक बनावट में लगभग एक समान होते हैं। किंतु किशोरावस्था में उनमें शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक भिन्नता ए उबर कर सामने आने लगती हैं। अतः इन असमानता ओं को ध्यान में रखकर दोनों वर्गों के लिए भिन्न-भिन्न फिटनेस कार्यक्रमों का विकास करना चाहिए।

3. वंशानुक्रम -
आकृति आकार संरचना कद आदि कारक अनुवांशिकता से संबंधित हैं जो शारीरिक फिटनेस एवं कल्याणकारी स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। गामक फिटनेस से संबंधित कारक गति शक्ति एवं सहनशक्ति का निवास कुछ सीमा तक व्यक्ति की मांस पेशी तंत्र संरचना पर भी निर्भर करता है।

4. संतुलित आहार -
संतुलित आहार अनियमित खानपान कुपोषण और अल्प पोषण व्यक्ति की शारीरिक दक्षता को कम करते हैं जबकि संतुलित आहार शारीरिक फिटनेस और कल्याणकारी स्वास्थ्य को बढ़ावा देते हैं। व्यक्ति को आयु लिंग वजन रूप और निष्पादित की जाने वाली शारीरिक गतिविधियों के अनुरूप संतुलित आहार ग्रहण करना चाहिए।

5. मानसिक थकान एवं तनाव -
मानसिक तनाव दबाव थकान एवं चिंता जैसे कारक भी शारीरिक फिटनेस एवं कल्याणकारी स्वास्थ्य को नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। इन मानसिक कारकों को योग तकनीकों एवं आध्यात्मिक मार्गदर्शन के द्वारा प्रबंधन करके फिटनेस में सुधार लाया जा सकता है।

6. विश्राम -
कठोर परिश्रम या गहन अभ्यास के बाद समुचित आराम एवं विश्राम भी अति आवश्यक है अन्यथा शारीरिक फिटनेस में कमी आती है। प्रशिक्षण या गहन अभ्यास के कारण होने वाली थकान से रिकवरी हो सके इसके लिए आवश्यक है कि सिद्धांतों का अनुपालन किया जाए। प्रशिक्षण अभ्यास समय अवधि का नहीं होना चाहिए।

7. वातावरण -
जलवायु मौसम तापमान प्रदूषण एवं प्राकृतिक वातावरण में भी शारीरिक फिटनेस और स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। स्वच्छ एवं सुरक्षित प्राकृतिक वातावरण में भी शारीरिक फिटनेस को प्राप्त करने में सहायता मिलती है।

8. स्वास्थ्य समस्याएं -
शारीरिक फिटनेस और कल्याणकारी स्वास्थ्य बीमारी तथा चोट से उपजी स्वास्थ्य समस्याओं से भी प्रभावित होता है। शारीरिक फिटनेस प्रभावित ना हो इसीलिए हम स्वास्थ्य शिक्षा के उपचारात्मक एवं निवारा तमक पहलुओं पर ध्यान देते हैं। इसके अतिरिक्त धूम्रपान मद्यपान एवं हानि कारी ड्रग्स का सेवन भी शारीरिक फिटनेस पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। अतः इस प्रकार की व्यव सन से दूर रहना चाहिए।

9. उचित प्रशिक्षण -
असंतुलित आहार ,अनियमित खानपान ,कुपोषण और अल्प पोषण व्यक्ति की शारीरिक दक्षता को काम करते है जबकि संतुलित आहार शरीर को फिट और कल्याणकारी स्वस्थ्य को बढ़ावा देते है। व्यक्ति की आयु ,लिंग, वजन, रोग और निष्पादन की जाने वाली शारीरिक गतिविधियों के अनुरूप संतुलित आहार ग्रहण करना चाहिए।


शारीरिक फिटनेस के लाभ

किसी भी आयु वर्ग के व्यक्ति नियमित रूप से शारीरिक गतिविधियों या व्यायाम के माध्यम से शारीरिक फिटनेस के अच्छे स्तर को प्राप्त कर सकते हैं। और उसे बनाए भी रख सकते हैं। यदि आप प्रतिबद्धता के साथ नियमित व्यायाम एवं संतुलित आहार के सिद्धांत का अनुपालन करते हैं तो यह ना केवल आपको गुणवत्ता परक जीवन जीने में सहायक होगा अपितु आपका असाध्य रोगों और शारीरिक क्षमताओं से भी बचाव करेगा। शारीरिक फिटनेस के कुछ महत्वपूर्ण लाभ निम्नलिखित हैं


उन्नत शारीरिक स्वास्थ्य
  1. हृदय और फेफड़ों की कार्य क्षमता में वृद्धि होती है।
  2. शरीर में हानिकारक कोलेस्ट्रॉल के स्तर में कमी आती है।
  3. मांसपेशियों की शक्ति और सहनशक्ति में वृद्धि होती है।
  4. हृदय रोग एवं मधुमेह जैसी बीमारियों का खतरा कम होता है एवं नियमित व्यायाम से मधुमेह रोगियों में ग्लूकोज का स्तर कम होता है तथा इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ती है जिससे मधुमेह रोग का खतरा कम हो जाता है।
  5. शरीर में अतिरिक्त वसा कम होती है और मांस पेशीय तान में वृद्धि होती है।

उन्नत मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य
  1. नियमित व्यायाम से मानसिक तनाव व थकान एवं चिंता जैसे मनोवैज्ञानिक कारकों पर नियंत्रण होता है।
  2. नियमित व्यायाम से मस्तिष्क का विकास होता है एवं शारीरिक गतियां अल्जाइमर रोग व मानसिक विघटन तथा अवसाद जैसी समस्या के खतरे को न्यून करती है।
  3. यह मस्तिष्क को संवारने वाले एंडोर्फिन नामक तत्व को मुक्त करने में सहायता देता है एवं इन तत्वों से व्यक्ति स्वयं अच्छे स्वास्थ्य एवं आनंद की अनुभूति करता है।
  4. यह व्यक्ति में आत्म सम्मान एवं आत्मबोध की भावना एवं आत्मविश्वास को बेहतर बनाता है।
  5. यह व्यक्ति में मानसिक सतर्कता व धारणा एवं मस्तिष्क की सूचना संसाधन क्षमता को बेहतर बनाता है।

उन्नत सामाजिक स्वास्थ्य
  1. व्यक्ति की आत्म छवि में सुधार आता है।
  2. व्यक्ति में सामाजिक दबावों से जूझने की योग्यता उन्नत होती है।
  3. सामाजिक समरसता एवं सामाजिक क्रियाकलापों में भागीदारी के अवसर बढ़ते हैं।
शारीरिक फिटनेस आपके चोट के अपने जोखिम को कम कर सकती हैl नियमित व्यायाम और शारीरिक गतिविधि मांसपेशियों की ताकत, हड्डियों के घनत्व, लचीलेपन और स्थिरता को बढ़ाती है।  मजबूत मांसपेशियां और बेहतर संतुलन का मतलब है कि आपके फिसलने और गिरने की संभावना कम है, और मजबूत हड्डियों का मतलब है कि आपकी हड्डियों की चोटों के कम होने की संभावना हैl
रोग नियंत्रण और रोकथाम-नियमित शारीरिक गतिविधि में संलग्न होना, कई स्वास्थ्य मुद्दों और जटिलताओं के
अपनी जीवन प्रत्याशा बढ़ाएँ कई अध्ययनों से पता चला है कि नियमित शारीरिक गतिविधि जीवन प्रत्याशा को बढ़ाती है और समय से पहले मृत्यु दर के जोखिम को कम करती है।
जो लोग अधिक सक्रिय होते हैं वे स्वस्थ रहते हैं और लंबे समय तक जीवन जीते हैं।
मानसिक लाभ-यदि आप व्यायाम करेंगे तो आप अपने आप में सुधार देखेंगे। आप अपने मूड में सुधार देखेंगे। साथ ही, आपके पास अधिक ऊर्जा होगी। इसलिए, आप जीवन की गुणवत्ता में सुधार देखेंगे।
बेहतर नींद : जो लोग व्यायाम करते हैं , उन्हें गहरी नींद आएगी। इसलिए, आपकी नींद की गुणवत्ता में सुधार होती है।
Brain function में सुधार होता है : व्यायाम आपके शरीर में थकान को कम करता है, जिससे सतर्कता और एकाग्रता में सुधार होता है। इसके अलावा, आपके रक्त परिसंचरण (blood circulation) में सुधार होगा। साथ ही, आपकी सोच तेज होगी।(sharper thinking)
आप कसरत करेंगे और आप अपने परिणाम देख सकते हैं। आपकी बॉडी शेप में सुधार होता है।

Assessment of Physical Fitness
आपु 9 से 14 के लिए
सहनशक्ति संबंधी
Spot Run


Stairs Climbing

Catwalk


Swimming


Jumping Jack


March in Place
 

क्षमता संबंधी

Straight Leg Raises





Wall Push Ups


Long Jump

Goal Keeping

लचीलेपन संबंधी
Calf Stretch

 
Child Pose Stretch

Knee to Chest Stretch

Bend Forward

संतुलन संबंधी गतिविधियों

Single Leg Stance

Leg Swing


Zig Zag Walk


आपु 15 से 18 के लिए
800 मीटर दौड़
तेज चलना

Kick Air Punch

Walking Lungs



Curl Up

Plank


Push-up

Squat




















प्राथमिक चिकित्सा की परिभाषा क्या है ? What is Definition of First Aid

किसी भी घायल या बीमार व्यक्ति को अस्पताल तक पहुँचाने से पहले उसकी जान बचाने के लिए हम जो कुछ भी कर सकते हैं उसे प्राथमिक चिकित्सा कहते हैं। उस आपातकाल में पड़े हुए व्यक्ति की जान बचाने के लिए हम आस-पास के किसी भी प्रकार के वास्तु का उपयोग कर सकते हैं जिससे जल्द से जल्द उसको आराम मिल सके अस्पताल ले जाते समय।

इमरजेंसी के समय क्या करना चाहिए उससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह जानना है कि क्या नहीं करना चाहिए? क्योंकि,गलत चिकित्सा से उस व्यक्ति विशेष की जान जाने का खतरा बढ़ सकता है।

प्राथमिक चिकित्सा निम्नलिखित इमरजेंसी अवस्ता में दी जा सकती है – दम घुटना(पानी में डूबने के कारण, फांसी लगने के कारण या साँस नल्ली में किसी बाहरी चीज का अटक जाना), ह्रदय गति रूकना-हार्ट अटैक, खून बहना, शारीर में जहर का असर होना, जल जाना, हीट स्ट्रोक(अत्यधिक गर्मी के कारण शारीर में पानी की कमी), बेहोश या कोमा, मोच, हड्डी टूटना और किसी जानवर के काटने पर।

प्राथमिक चिकित्सा के उदेश्य Aim of First Aid 

  • घायल व्यक्ति का जान बचाना
  • बिगड़ी हालत से बाहरा निकालना
  • तबियत के सुधार में बढ़ावा देना

प्राथमिक चिकित्सा के स्वर्ण नियम Golden Rules of First Aid

प्राथमिक चिकित्सा के कुछ सुनहरे नियम इस प्रकार हैं –

  1. जल्द से जल्द दुर्घटना स्थल पर पहुँचें।
  2. अनावश्यक प्रश्न पूछकर समय बर्बाद न करें।
  3. चोट का कारण जल्दी से पता करें।
  4. चोट लगने वाली वस्तु को रोगी से अलग करें। जैसे गिरने वाली मशीनरी, आग, बिजली का तार, जहरीले कीड़े, या कोई अन्य वस्तु।
  5. पता लगाएँ कि क्या मरीज मर चुका है, जीवित या बेहोश है।
  6. गोद लिए जाने वाले प्राथमिक उपचार उपायों की प्राथमिकता निर्धारित करें। उस क्रम में कार्डियक फंक्शन को ठीक करना, सांस लेने में मदद करना, चोट लगने की जगह से खून बहना बंद करें।
  7. जल्दी से जल्दी चिकित्सा सहायता की व्यवस्था करें।
  8. रोगी का रिकॉर्ड और घटना का विवरण रखें।
  9. जहां तक संभव हो मरीज को गर्म और आरामदायक रखें।
  10. विशिष्ट उपकरणों की प्रतीक्षा करने के बजाय सुधार करें।
  11. यदि रोगी होश में है, तो उसे आश्वस्त करें।

प्राथमिक चिकित्सा के सिद्धांत Principle of First Aid in Hindi

  • सांस की जाँच करें और ABC के नियम का पालन करें
  • अगर चोट लगी है और रक्त बह रहा हो तो जल्द से जल्द रक्तस्राव को रोकें
  • अगर घायल व्यक्ति को सदमा लगा हो तो उसे समझाएं और सांत्वना दें
  • अगर व्यक्ति बेहोश हो तो होश में लाने की कोशिश करें
  • अगर कोई हड्डी टूट गयी हो, तो सीधा करें और दर्द को कम करें
  • जितना जल्दी हो सके घायल व्यक्ति को नजदीकी अस्पताल या चिकित्सालय पहुंचाएं

प्राथमिक चिकित्सा में ABC क्या है? ‘ABC’ of First Aid 

1. A (Airway) श्वासनली की जाँच

श्वासनली में रुकाव खासकर बेहोश लोगों में जीभ के कारण हो सकता है। बेहोशी के बाद मुहँ के मांसपेशियों में ढीला पड़ने के कारण जीभ गले के पिछले भाग में गिर जाता है जिससे श्वासनली ब्लाक हो जाता है।

श्वासनली की जाँच करने के लिए सबसे पहले अपनी उँगलियों की मदद से जीभ को उसकी जगह पर खिंच लायें। आप उसके पश्चात यह सुनिश्चित कर लें की श्वासनली में किसी भी प्रकार का रुकाव ना हो।

2. B (Breathing) सांस की जाँच

सबसे पहले अपने कान को घायल व्यक्ति के मुह के पास ले जा कर सुनें, देखें और महसूस करें। छाती को ध्यान से देखें , ऊपर निचे हो रहा है या नहीं। अगर वह सांस नहीं ले रहा हो तो उसी समय  Mouth to Mouth Respirationचालू करें। जिसमें घायल व्यक्ति को पीठ के बल सीधे लेटा कर उसके मुहँ को खोल कर अपने मुहँ से हवा भरा जाता है।

3. C (Circulation) रक्तसंचार की जाँच

अब बारी है रक्तसंचार की जाँच करने की। सबसे पहले घायल व्यक्ति के नाड़ी की जाँच करें। जाँच करने के लिए कैरोटिड आर्टरी को ढूँढें । यह artery गर्दन के कोने में कान के नीचें होती है आप अपनी उँगलियों को वहां रख कर जाँच कर सकते हैं। पल्स की जाँच करने के लिए 5-10 सेकंड लगते है।

अगर उस व्यक्ति के दिल की धड़कन चल रही हो तो Mouth to Mouth Respiration चालू रखें और अगर दिल की धड़कन ना चल रही हो तो बिना देरी किये Cardiopulmonary Resuscitation(CPR) चालू करें Mouth to Mouth Respiration के साथ।

इसमें एक बार मुहँ से हवा देने बाद मरीज़ के दिल के ऊपर एक हाँथ के ऊपर दूसरा हाँथ रख कर ज़ोर-ज़ोर से चार बार दबाएँ। जब तक घायल व्यक्ति अपने आप सांस नहीं लेता। यह काम दो व्यक्ति होने पर और भी सही प्रकार से होता है क्योंकि इससे एक व्यक्ति Mouth to Mouth Respiration करता है तो दूसरा Cardiopulmonary Resuscitation(CPR) करता है।

प्राथमिक चिकित्सा के समय इन्फेक्शन से कैसे बचें? How to protect yourself from infection during giving First Aid 

फर्स्ट ऐड के दौरान आपको इस बात का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए कि आपको घायल व्यक्ति से किसी भी प्रकार का इन्फेक्शन ना हो और आपसे भी किसी प्रकार का इन्फेक्शन उस घायल व्यक्ति को ना हो।

इसीलिए अच्छे से हांथों को धोएं और ग्लव्स(दस्ताने) का उपयोग करें जिससे की क्रॉस इन्फेक्शन ना हो। खुले हांथों से रक्त जनित संक्रमण जैसे हेपेटाइटिस बी या सि और HIV या AIDS होने का चांस होता है। यह वायरल बीमारियाँ किसी भी एक व्यक्ति के खून से दुसरे खून से मिलने से होता है।

प्राथमिक चिकित्सा की पेटी What is First Aid Kit

1. श्वासनली की जाँच, साँस से जुडी और रक्तसंचार के जाँच के लिए प्राथमिक चिकित्सा पेटी सामग्री Airway, Breathing and Circulation Equipment Kit

  • मुहँ के लिए मास्क Pocket mask
  • चेहरे के लिए शील्ड Face shield
  • रक्तदाबमापी Sphygmomanometer (blood pressure cuff)
  • स्टेथोस्कोप Stethoscope
  • इमरजेंसी फ़ोन नंबर

घरेलु प्राथमिक चिकित्सा के किट या पेटी में ये चीजें भी होनी चाहिए : स्पिरिट या अल्कोहल, बैंड ऐड, रुई, रुई के स्वब, आयोडीन लोशन, बैंडेज, H2O2 हाइड्रोजन पेरोक्साइड।

2. आघात या चोटों के लिए पेटी सामग्री Trauma injuries Kit

चोट लगना, खून निकलना, हड्डी का टूटना या जल जाने का सामग्री फर्स्ट ऐड किट में होना बहुत आवश्यक है। इसमें बहुत सारे बैंडेज और ड्रेसिंग सामान का होना जरूरी होता है। जैसे –

  • चिपकाने वाली पट्टियां Adhesive bandages  जैसे बैंड ऐड, स्टिकलिंग प्लास्टर (band-aids, sticking plasters)
    • मोलस्किन Moleskin – छाले के उपचार और रोकथाम के लिए।
  • ड्रेसिंग की सामग्री Dressings – जीवाणुरहित, घाव पर सीधे लगाने के लिए।
    • अजिवाणु/कीटाणुरहित आँख के लिए पैड Sterile eye pads।
    • अजिवाणु गौज पैड Sterile gauze pads।
    • ना चिपकने वाला टेफ़लोन लेयर वाला पैड।
    • पेट्रोलेटम गौज पैड – छाती के घाव पर लगाने के लिए तथा वायुरोध ड्रेसिंग के लिए और ना चिपकने वाले ड्रेसिंग के लिए।
  • बैंडेज Bandages (ड्रेसिंग के लिए, स्टेराइल किये बिना)
    • रोलर बैंडेज Gauze roller bandages – घाव को जल्द से जल्द सोकने में मददगार।
    • इलास्टिक बैंडेज Elastic bandages – मांसपेशियों में खिचाव और प्रेशर पड़ने पर ड्रेसिंग में उपयोगी।
    • जलरोधक बैंडेज Waterproof bandaging
    • त्रिकोणीय पट्टियाँ या बैंडेज Triangular bandages – टूनिकेट(रक्त रोधी) जल्द से जल्द रक्त बहाव को रोकने के लिए।
  • बटरफ्लाई क्लोसुरे स्ट्रिप्स Butterfly closure strips – बिना साफ़ किये हुए घाव के लिए।
  • सेलाइन Saline- घाव को धोने के लिए या आँखों से गन्दगी निकलने के लिए।
  • साबुन Soap – घाव को साफ़ करने के लिए।
  • जले हुए घाव के लिए ड्रेसिंग Burn dressing – ठन्डे जेल पैक।
  • कैंची Scissor

3. प्राथमिक चिकित्सा किट के लिए ज़रूरी दवाइयाँ Important Medicines to keep in First Aid Box

प्राथमिक चिकत्सा किट में कुछ जरूरी दवाइयाँ भी होनी चाहिए, जैसे –

  1. दर्द दूर करने वाली दवाइयाँ जैसे – Diclofenac, Aceclofenac, Paracetamol इत्यादि।
  2. दिल का दौरा पड़ने पर आराम के लिए दवाइयाँ जैसे – Aspirin, Sorbitrate, Nitriglycerin इत्यादि।
  3. कुछ एंटीबायोटिक ऑइंटमेंट जैसे – Noesporin, Aloevera Gel, Clobetasol इत्यादि।
  4. घाव साफ़ करने के लिए एंटीबैक्टीरियल लोशन जैसे – Dettol, Savlon, Hydrogen Peroxide(H2O2) इत्यादि।
  5. अस्थमा के रोगियों के लिए दवाइयाँ जैसे – Asthalin Inhaler, Deriphyllin, Salbutamol इत्यादि।
  6. दस्त रोकने के लिए दवाइयाँ जैसे – Ofloxacin+Metronidazole, Loperamide, Lactic Acid Bacillus, ORS इत्यदि।
  7. उल्टी के लिए दवाइयाँ जैसे – Metoclopramide, Ondansetron इत्यादि।

प्राथमिक चिकित्सा के प्रकार उपचार सहित Types of First Aid with Treatment

घाव या चोट लगने पर प्राथमिक चिकित्सा First Aid for Injury and bleeding

  • तुरंत अस्पताल पहुंचायें
  • अगर घाव बहुत गहरा हो और खून बहुत ज्यादा बह रहा हो या 10 मिनट के बाद भी ना रुके तो नीचे दिए हुए स्टेप्स को follow करें-
  1. सबसे पहले ब्लीडिंग रोकें – चोट की जगह पर किसी कपडे, रुई की मदद से ज़ोर से दबा कर रखें जिससे की ब्लीडिंग बंद हो जाये।
  2. घाव को साफ़ करें – चोट या घाव को साबुन या गुनगुने पानी से धोएं। कटे और खुले हुए घाव में हाइड्रोजन पेरोक्साइड ना डालें।
  3. चोट पर  एंटीबायोटिक मरहम लगायें और बैंडेज बांध दें।
  4. आगे की चिकित्सा के लिए घायल व्यक्ति को नजदीकी चिकित्सालय या अस्पताल ले जाएँ

हड्डी टूटने पर प्राथमिक चिकित्सा First Aid for fracture (Broken Bone) हड्डी कई कारणो से टूट सकती है जैसे किसी खेल के समय या किसी और दुर्घटना के कारण। कभी-कभी हड्डी टूटना जानलेवा भी हो सकता है।

हड्डी के टूटने के लक्षण

  • चोट की जगह को छूने और हिलाने पर अगर दर्द हो।
  • चोट की जगह पर सुज़न, सुन्न हो जाना या नीला पड़ जाना।
  • पैर काम ना दे रहा हो उठाने में या problem हो रहा हो, खासकर जब कंधे और पैर के जोड़ों में चोट लगी हो तो।
  • अगर हड्डी चमड़े के नीचे उभरी हुई हो।

हड्डी टूटने पर प्राथमिक चिकित्सा के स्टेप्स

  1. अगर आदमी बेहोश हो तो सबसे पहले ABC रूल को फॉलो करें।
  2. अगर कहीं खून निकल रहा हो तो पहले ब्लीडिंग को बंद करने की कोशिश करें।
  3. अगर घायल व्यक्ति को सदमा लगा हो तो पहले उससे सदमे के लिए प्राथमिक चिकित्सा दें और आराम से बात करें साथ ही सांत्वना दें।
  4. अगर आपको दिखा कोई हड्डी टूट गया है तो पहले उस हड्डी को सीधा कर के निचे एक गत्ते या लकड़ी का तख्ता देकर मजबूती से बैंडेज बाँध दें।
  5. चोट की जगह पर प्लास्टिक बैग में बर्फ रखकर दबाएँ।
  6. जल्द से जल्द मरीज़ को अस्पताल पहुँचायें।

करंट (बिजली का झटका) लगने पर प्राथमिक चिकित्सा First Aid for Electric Shock

इलेक्ट्रिक शॉक के लगने पर खतरा कर्रेंट के वोल्टेज के हिसाब से होता है। इलेक्ट्रिक शॉक इतना खतरनाक हो सकता है कि इसमें अंदरूनी शारीर जल भी सकता है। यह पूरी तरीके से जानलेवा है।

इलेक्ट्रिक शॉक लगने पर इस प्रकार के लक्षण आप देख सकते हैं

  • अत्यधिक शारीर का जलना
  • उलझन में पड़ना
  • साँस लेने में मुश्किल
  • हार्ट अटैक
  • मांसपेशियों में दर्द
  • दौरा पड़ना
  • बेहोश हो जाना

इलेक्ट्रिक शॉक लगने पर प्राथमिक चिकित्सा के स्टेप्स

  1. सबसे पहले बिजली के स्त्रोत को बंद करें। अगर ना हो सके तो किसी सूखी लकड़ी, प्लास्टिक या कार्ड बोर्ड से बिजली के स्त्रोत को घायल व्यक्ति से दूर कर दें।
  2. अगर आदमी होश में ना हो तो ABC रूल फॉलो करें।
  3. चोट लगे हुए स्थान पर बैंडेज लगायें और जले हुए स्थानों को साफ़ कपडे से ढक दें।
  4. जल्द से जल्द मरीज़ को नज़दीकी अस्पताल पहुंचायें।

    जल जाने पर प्राथमिक चिकित्सा First Aid for Burn

आप कई प्रकार से जल सकते हैं – गर्मी से, आग से, रेडिएशन से, सूर्य किरण, रासायनिक पदार्थ से और गर्म पानी से।

बर्न या जलने को 3 डिग्री में विवाजित है –

  • फर्स्ट डिग्री बर्न – इसमें चमड़े का उपरी भाग लाल हो जाता है और दर्द भी बहुत होता है। थोडा सुजन आता है और त्वचा को छूने से सफ़ेद हो जाता है। जला हुआ त्वचा 1-2 दिन में निकल जाता है। इसमें घाव 3-6 दिन में भर जाता है
  • सेकंड डिग्री बर्न – इसमें त्वचा थोडा मोटे आकार में जल जाता है। इसमें दर्द बहुत होता है और फफोले या छाले निकल जाते हैं। इसमें त्वचा बहुत ज्यादा लाल हो जाता है और सुजन भी आता है। इसमें घाव 2-3 हफ्ते में भर जाता है।
  • थर्ड डिग्री बर्न – इसमें त्वचा के तीनो लेयर जल जाता है। इसमें जला हुआ त्वचा सफ़ेद हो जाता है ऐसे में दर्द कम होता है या बिलकुल नहीं होता क्योंकि इसमें न्यूरॉन डैमेज हो जाता है। इसमें घाव भरने में बहुत समय लग जाता है।

    जल जाने पर प्राथमिक चिकित्सा के स्टेप्स

    फर्स्ट डिग्री बर्न होने पर प्राथमिक चिकित्सा कैसे करें?

    • जले हुए जगह को 5 मिनट तक पानी में डूबा कर ठंडा कीजिये। इससे सुजन और जलन कम हो जायेगा।
    • अलोवेरा क्रीम या एंटीबायोटिक ऑइंटमेंट लगायें।
    • हलके से बैंडेज बांधे।
    • दर्द कम करने वाली दवाइयां खाएं (डॉक्टर से संपर्क करें)।

    सेकंड डिग्री बर्न होने पर प्राथमिक चिकित्सा कैसे करें?

    • जले हुए जगह को 15 मिनट के लिए पानी में डूबा कर ठंडा कीजिये जिससे जलन कमें और सुजन भी।
    • एंटीबायोटिक क्रीम लगायें।
    • प्रतिदिन नया ड्रेसिंग करें।
    • दर्द कम करने वाली दवाइयां और एंटीबायोटिक खाएं (डॉक्टर से संपर्क करें)।

    थर्ड डिग्री बर्न होने पर प्राथमिक चिकित्सा कैसे करें?

    • थर्ड डिग्री बर्न में जितनी जल्दी हो सके मरीज़ को हॉस्पिटल ले जाएँ।
    • उनके शारीर या कपड़ों को ना छुएं, वे घाव में चिपक सकते हैं।
    • घाव में पानी ना लगायें।
    • किसी भी प्रकार का ऑइंटमेंट ना लगायें।

      सांप काटने पर प्राथमिक चिकित्सा First Aid for Snake Bite

  • बहुत सारे सांप जहरीले नहीं होते उनके काटने पर घाव को साफ करने और दवाई लगाने से ठीक हो जाता है। लेकिन ज़रारिले सांप के काटने पर जल्द-से-जल्द फर्स्ट ऐड की आवश्यकता होती है।

जहरीले सांप के काटने पर लक्षण सांप की प्रजाति के अनुसार होता है। कोबरा या क्रेट प्रजाति के सांप के काटने पर न्यूरोलॉजिकल/मस्तिक्ष सम्बन्धी लक्षण दीखते हैं जबकि वाईपर के काटने पर रक्त वाहिकाएं नस्ट हो जाती हैं।

सांप के काटने पर इलाज के लिए सही एंटी-टोक्सिन या सांप के सीरम को चुनने के लिए सांप की पहचान करना बहुत आवश्यक है।

सांप काटने पर लक्षण

  • सांप के काटने का निशान’
  • दर्द या सुन्न हो जाना दर्द के जगह पर
  • लाल पड़ जाना
  • काटे हुए स्थान पर गर्म लगना और सुजन आना
  • सांप के काटे हुए निशान के पास के ग्रंथियों में सुजन
  • आँखों में धुंधलापन
  • सांस और बात करने में मुश्किल होना
  • लार बहार निकलना
  • बेहोश या कोमा में चले जाना

सांप के काटने पर प्राथमिक चिकित्सा के स्टेप्स

  1. पेशेंट को आराम दें
  2. शांत और अशस्वाना दें
  3. सांप के काटे हुए स्थान को साबुन से ज्यादा पानी में अच्छे से धोयें
  4. सांप के काटे हुए स्थान को हमेशा दिल से नीचें रखें
  5. काटे हुए स्थान और उसके आस-पास बर्फ पैक लगायें ताकि इससे ज़हर(venom) का फैलना कम हो जाये
  6. पेशेंट को सूने ना दें और हर पल नज़र रखे
  7. होश ना आने पर ABC रूल अपनाएं
  8. जितना जल्दी हो सके मरीज़ को अस्पताल पहुंचाएं

कुत्ते के काटने पर प्राथमिक चिकित्सा First Aid for Dog Bite

एक कुत्ते के मुह के अन्दर 60 से भी ज्यादा अलग-अलग प्रकार के बैक्टीरिया और वायरस होते हैं जिनमे से कुछ बहुत ही खतरनाक होते हैं जैसे – उदाहरण के लिए : रेबीज(Rabies). किसी भी आदमी, बिल्ली, बंदर, घोड़े के काटने पर भी इन्फेक्शन होने का खतरा होता है।

कुत्ते के काटने पर प्राथमिक चिकित्सा के स्टेप्स

  • घाव को तुरंत अच्छे से साबुन और पानी से धोएं
  • 5-10 मिनट तक धोएं
  • धोते समय ज्यदा ना रगड़ें
  • थोडा सा खून बहने दें इससे इन्फेक्शन साफ़ हो जाता है
  • तुरंत अस्पताल जा कर एंटी-रेबीज वैक्सीन लगवाएं


राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम

मलेरिया भारत में कई दशकों से परेशानी का कारण बना हुआ है इस मलेरिया बीमारी की व्याख्या प्राचीनतम ग्रंथ और वेदों जैसे अथर्व वेद ओर चरक साहित्य में भी देखने को मिली है। हम इससे यह मान सकते हैं कि इस बीमारी का इतिहास काफी पुराना है। 19वीं सदी के आखिर और 20वीं सदी की शुरुआत में भारत की करीबन एक चौथाई आबादी मलेरिया बीमारी की चपेट में आ चुकी थी। पंजाब और बंगाल जैसे राज्य तो करीबन पूरी तरह इसके जाल में फस चुके थे। 1935 में हुए एक सर्वे के अनुसार भारत को मलेरिया के कारण 100 करोड़ का नुकसान हर साल हो रहा था। 

आज़ादी के समय से हुई शुरुआत

साल 1947 यानी आज़ादी के समय में करीबन 7.5 करोड़ लोग इसकी चपेट में आ चुके थे, जबकि उस समय भारत की आबादी 33 करोड़ थी और उस समय 8 लाख लोग हर साल इस बीमारी के कारण मर रहे थे। इस बीमारी से निपटने के लिए भारत सरकार ने 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण योजना बनाई जिसी काफी सराहना की गई। भारत मलेरिया से मरने वालों की संख्या में दुनिया में चौथे नंबर पर आता है। इसके बाद मध्य 1960 के बाद धीरे-धीरे मलेरिया के केस में लगातार गिरावट आनी शुरू हुई। 1976 में मलेरिया के करीबन 64 लाख मामले भारत में दर्ज किए गए। इसके बाद यह धीरे-धीरे और नियंत्रण में आया और साल 2009 में 16 लाख मामले दर्ज किए गए और 2400 मौतें दर्ज की गई। 

मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम

1953 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम (एनएमसीपी) शुरू किया जो घरों के बाहर और अंदर डीडीटी का छिड़काव करने पर ही पूरी तरह केन्द्रित था। सिर्फ पांच सालों में ही इसकी वजह से मलेरिया की कुल घटनाओं में बेहतरीन कमी देखने को मिली। इससे प्रेरणा लेते हुए एक अधिक महत्वाकांक्षी राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम (एनएमईपी) की 1958 में शुरुआत की गई। इससे मलेरिया में और भी कमी आई और साथ ही ये मृत्यु की वजह बनना भी बंद हो गया, लेकिन 1967 के बाद अति-आत्मसंतोष, मच्छरों द्वारा कीटनाशकों और मलेरिया-रोधी दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न कर लेने की वजह से देश में मलेरिया ने अपना कब्ज़ा फिर बनाना शुरू कर दिया।

मलेरिया मुक्त भारत

1997 में भारत सरकार ने एक अच्छा निर्णय लेते हुए, लक्ष्य रोग के उन्मूलन से हटा कर उसके नियंत्रण पर केन्द्रित किया और कीटनाशकों के छिड़काव को रोक कर चुनिंदा भीतरी जगहों पर छिड़काव शुरू किया। 2003 में राष्ट्रीय ज्ञात-कारण बीमारी नियंत्रण कार्यक्रम (एनवीबीडीसीपी) के तहत मलेरिया नियंत्रण को अन्य ज्ञात-कारण बीमारियों के साथ मिला लिया गया क्योंकि ऐसी सभी बीमारियों की रोकथाम के लिए एक ही रणनीति होती है जैसे रासायनिक नियंत्रण जैसे दवाई का छिड़काव, वातावरण प्रबंधन, जैविक नियंत्रण (और निजी सुरक्षा उपाय जैसे कीटनाशक उपचारित मच्छरदानियां।

निरंतर और अथक प्रयासों से मलेरिया को रोकने के लिए सरकार और चिकित्सा संस्थानों ने काफी हद तक इस काम में सफलता पायी है, लेकिन अभी भी हम पूरी तरह से मलेरिया मुक्त नहीं हो पाए हैं। भारत सरकार ने 2030 तक भारत को मलेरिया मुक्त बनाने की योजना बनाई है।






संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (आरएनटीसीपी)
 
क्षय रोग (टीबी) नियंत्रण गतिविधियों को देश में लागू किए पचास वर्षों से अधिक हो गये है। राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम (एनटीपी) की शुरूआत भारत सरकार ने वर्ष 1962 में बीसीजी टीकाकरण और टीबी उपचार से जुड़े जिला टीबी केंद्र मॉडल के रूप में की थी। वर्ष 1978 में बीसीजी टीकाकरण को टीकाकरण विस्तारित कार्यक्रम के अंतर्गत स्थानांतरित कर दिया गया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और भारत सरकार तथा स्वीडिश अंतर्राष्ट्रीय विकास एजेंसी (एसआईडीए) ने वर्ष 1992 में एनटीपी की संयुक्त समीक्षा की थी तथा उन्हें कार्यक्रम में कुछ कमियां जैसे कि प्रबंधकीय कमजोरियां, अपर्याप्त वित्त पोषण, एक्स-रे पर अत्यधिक निर्भरता, गैर-मानक उपचार कोर्स, उपचार पूर्ण होने की दर में कमी एवं उपचार परिणामों पर सुव्यवस्थित/पद्धतिबद्ध सूचनाओं का अभाव पाया गया था।
 
उसी समय डब्ल्यूएचओ ने वर्ष 1993 में टीबी को वैश्विक आपातकाल घोषित किया। उसने क्षय रोग की चिकित्सा के लिए प्रत्यक्ष प्रेक्षित थेरेपी, छोटा-कोर्स (डॉट्स/डाइरेक्टली ऑब्जर्व्ड शॉर्ट कोर्स), अर्थात् सीधे तौर पर लिए जाने वाला छोटी अवधि के उपचार की स्थापना की तथा सभी देशों से इसे अपनाने की सिफ़ारिश की। भारत सरकार ने वर्ष 1993 में एनटीपी को संशोधित राष्ट्रीय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम के रूप में लागू किया। डॉट्स की आधिकारिक तौर पर शुरूआत वर्ष 1997 में आरएनटीसीपी रणनीति के अंतर्गत की गयी थी तथा इस कार्यक्रम के अंतर्गत वर्ष 2005 के अंत तक पूरे देश को कवर किया गया था। 
 
वर्ष 2006 से 2011 के दौरान अपने दूसरे चरण में आरएनटीसीपी ने गुणवत्ता और सेवाओं की पहुंच में सुधार किया तथा सभी मामलों का पता लगाने और उपचारित करने के लक्ष्य के लिए कार्य किया गया। ये लक्ष्य वर्ष 2007 से 2008 तक प्राप्त किए गए थे। इन उपलब्धियों के बावजूद अनियंत्रित और अनुपचारित मामलों ने टीबी महामारी को जारी रखा। टीबी एचआईवी/एड्स से पीड़ित लोगों के बीच रोग और मृत्यु का प्रमुख कारण था तथा प्रतिवर्ष बहुत ज़्यादा मल्टी ड्रग रेसिस्टेंट टीबी (एमडीआर-टीबी) मामलों की सूचना प्राप्त हुयी थी। इस अवधि के दौरान "टीबी मुक्त भारत" के दीर्घकालिक उद्देश्य की प्राप्ति हेतु 'समुदाय में सभी टीबी रोगियों के लिए टीबी के गुणवत्तापरक निदान और उपचार की सार्वभौमिक पहुंच' के लक्ष्य के साथ क्षय रोग नियंत्रण वर्ष 2012-2017 के लिए राष्ट्रीय रणनीति योजना निर्मित की गयी थी।
 
टीबी के सभी के मामलों की अनिवार्य अधिसूचना के संदर्भ में एनएसपी वर्ष 2012-2017 के दौरान सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं (राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन), नैदानिक सेवाओं का विस्तार, दवा प्रतिरोध (ड्रग रेसिस्टेंट) टीबी का प्रणालीगत प्रबंधन (पीएमडीटी) सेवा वितारण, सभी टीबी-एचआईवी के मामलों के लिए एकल खिड़की सेवा, राष्ट्रीय दवा प्रतिरोध निगरानी और भागीदारी के दिशानिर्देशों के संशोधन के साथ महत्वपूर्ण हस्तक्षेपों और पहलों की शुरूआत गई थी।
 
हालांकि वर्ष 2025 तक भारत से टीबी उन्मूलन के लिए पांच वर्ष पहले का  वैश्विक लक्ष्य रखा गया है।  राष्ट्रीय और राज्य सरकारों, विकास भागीदारों, नागरिक समाज संगठनों, अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों, अनुसंधान संस्थानों, निजी क्षेत्र, और कई अन्य लोगों सहित भारत में टीबी उन्मूलन के लिए प्रासंगिक सभी हितधारकों की गतिविधियों के मार्गदर्शन के लिए एक ढांचा आरएनटीसीपी द्वारा तैयार किया गया है, जिसका नाम “क्षय रोग उन्मूलन वर्ष 2017-2025 हेतु राष्ट्रीय रणनीतिक योजना” है।
 
'क्षय रोग उन्मूलन वर्ष 2017-2025 हेतु राष्ट्रीय रणनीतिक योजना’-
 
आरएनटीसीपी ने वर्ष 2025 तक भारत में टीबी नियंत्रण और उन्मूलन के लिए 'क्षयरोग वर्ष 2017-2025' (एनएसपी) के लिए 'राष्ट्रीय रणनीतिक योजना' जारी की है। एनएसपी टीबी उन्मूलन के अनुसार "पता लगाना (डिटेक्ट)- उपचार करना (ट्रीट)- रोकथाम (प्रिवेंट) –निर्माण (बिल्ड)" (डीटीपीबी) को चार रणनीतिक स्तंभों में एकीकृत किया गया है।
 
पता लगाना:
 
एनएसपी का पहला उद्देश्य उच्च ज़ोखिम वाली जनसंख्या (जैसे कि कैदी, प्रवासी श्रमिक, एचआईवी/एड्स से पीड़ितों, संपर्क व्यक्तियों आदि) में न पता लगने वाले टीबी के मामलों तथा निजी प्रदाताओं से देखभाल की मांग करने वाले टीबी रोगियों तक पहुंचने के साथ-साथ सभी दवा अतिसंवेदनशील (ड्रग सेंसिटिविटी) टीबी मामलों (डीएस-टीबी) और दवा प्रतिरोधी (ड्रग रेसिस्टेंट) टीबी मामलों (डीआरटीबी) का पता लगाना है।
 
समुदाय में टीबी मामलों का शुरूआत में पता लगाना और उपचार टीबी उन्मूलन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जो कि दूसरों में रोग के संचारण, खराब स्वास्थ्य परिणाम तथा रोगी और उनके परिवार की सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों के ज़ोखिम को कम करने में मदद करता है।
 
टीबी के मामलों की अधिसूचना: स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार ने वर्ष 2012 से सभी स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं से टीबी के सभी रोगियों की अधिसूचना देना अनिवार्य कर दिया है।
 
सभी स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं, सरकार (स्थानीय प्राधिकारियों सहित) द्वारा चलने और प्रबंधित होने वाले प्रतिष्ठानों, निजी या गैर सरकारी संगठनों और/या निजी चिकित्सकों) को हर महीने स्थानीय स्वास्थ्य प्राधिकरणों (जिला स्वास्थ्य अधिकारी, जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी और नगरपालिका निगम/नगर पालिका के नगरपालिका स्वास्थ्य अधिकारी) को हर टीबी के मामले की सूचना देनी होगी। वर्ष 2015 में हुए संशोधन के माध्यम से टीबी के मामलों की सूचना देने के लिए सभी प्रयोगशालाओं को भी इसमें शामिल किया गया है।
 
अब तक केवल चिकित्सकीय चिकित्सक, अस्पताल और प्रयोगशालाएं टीबी रोगियों की सूचना सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली को प्रदान कर रही थीं, अब निजी चिकित्सकों, रसायनविदों और सार्वजनिक स्वास्थ्य कर्मचारियों के लिए 'अनिवार्य टीबी अधिसूचना राजपत्र के अनुसार मार्च 2018, सभी केमिस्टों को टीबी की दवा रोगी को दिए जाने के बारे में सूचना देनी होगी। टीबी रोगियों को भी स्वयं को सूचित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। हर टीबी रोगी को स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राधिकरण अर्थात् जिला स्वास्थ्य अधिकारी या जिला के मुख्य चिकित्सा अधिकारी तथा शहरी स्थानीय निकायों के नगर स्वास्थ्य अधिकारी तक पहुंचने का प्रयास करना होगा ताकि रोगियों, परिवारों और समुदायों को प्रोत्साहन (इंसेंटिव) और सहयोग ठीक तरीके से मिल सकें।
 
निक्षय: टीबी अधिसूचना की सुगम्यता के लिए आरएनटीसीपी ने सरकारी और निजी स्वास्थ्य देखभाल सुविधा केंद्रों के लिए केस-आधारित वेब-आधारित टीबी निगरानी प्रणाली विकसित की है जिसे "निक्षय" (https://nikshay.gov.in) कहा जाता है। निक्षय के अंतर्गत आगे होने वाली वृद्धि रोगी के सहयोग, योजना प्रबंधन, प्रत्यक्ष डेटा स्थानान्तरण, अनुपालना सहयोग तथा कार्यक्रम की पहुंच विस्तारण को सहयोग करने वाली सहयोगात्मक (इंटरफ़ेस) एजेंसियों के लिए है।
 
सरकारी निजी भागीदारी: टीबी रोकथाम एवं देखभाल तथा प्रदाताओं को सार्वजनिक-निजी (पीपीएम) टीबी मामलों की अधिसूचना, उपचार अनुपालना और उपचार की पूर्णता सुनिश्चित करने के लिए प्रोत्साहन (इंसेंटिव) प्रदान किया जाता हैं। प्रोत्साहन (इंसेंटिव) लाभार्थियों के बैंक खातों में ट्रांसफर किए जाते हैं।
 
निजी क्षेत्र के टीबी देखभाल प्रदाता के लिए प्रोत्साहन (इंसेंटिव) निम्नानुसार हैं:
 
  • भारत में टीबी देखभाल (एसटीसीआई) के मानकों के अनुसार पता लगाए गए टीबी के मामले की सूचना पर 250/- रुपये।
  • उपचार का हर महीना पूरा होने पर 250/- रुपये।
  • टीबी के उपचार का कोर्स (दवा की अवधि) पूरा होने पर 500/- रुपये।
  • एसटीसीआई के अनुसार छह से नौ महीने तक दवा-संवेदनशील (ड्रग सेंसिटिव) रोगी के प्रबंधन और अधिसूचना के लिए 2750/- रुपये।
  • एसटीसीआई के अनुसार चौबीस महीने तक दवा प्रतिरोध (ड्रग रेसिस्टेंट) मामले के उचित प्रबंधन और सूचना के लिए 6750 रुपये/-
 
निजी क्षेत्र में टीबी रोगियों के लिए नि:शुल्क दवाएं और नैदानिक परीक्षण- निजी स्वास्थ्य क्षेत्र से उपचार लेने वाले टीबी रोगियों को नि:शुल्क दवाएं और नैदानिक परीक्षण प्रदान किए जाते हैं। निजी क्षेत्र में टीबी रोगियों को नि:शुल्क दवाओं और नैदानिक परीक्षणों तक पहुंच सुनिश्चित करने के दो पहलु हैं, पहला विशिष्ट लिंकेज के माध्यम से कार्यक्रम-प्रदात्ता दवाओं और नैदानिक कार्यक्रमों तक पहुंच है; और दूसरा बाजार में उपलब्ध दवाओं और निदान की प्रतिपूर्ति है।
 
कार्यक्रमों की पहलों द्वारा किफ़ायती और गुणवत्ता टीबी परीक्षण '(आईपीएक्यूटी) को बढ़ावा देने के लिए चयनित निदान के व्यय में महत्वपूर्ण कमी प्राप्त की जाती है। निजी क्षेत्र की एक सौ इकत्तीस प्रयोगशालाओं में अधिकतम मूल्य या उससे कम पर टीबी के लिए चार गुणवत्तापरक परीक्षण प्रदान करने का नेटवर्क है। 
 
टीबी निदान के लिए 14,000 से अधिक नामित माइक्रोस्कोपी केंद्र पूरे देश में स्थापित हैं। टीबी दवा प्रतिरोधी (ड्रग रेसिस्टेंट) हेतु विकेन्द्रीकृत मोलेक्युलर टेस्ट (आण्विक परीक्षण) के लिए कार्ट्रिज बेस्ड न्यूक्लिक एसिड एम्पलीफिकेशन टेस्ट (सीबीएनएएटी)/लाइन प्रोब परख (एलपीए) की स्थापना जिला स्तर पर की गई है। राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर प्रयोगशालाएं स्थापित की गई हैं, जो कि कल्चर और ड्रग सेंसिविटी टेस्ट (डीएसटी) सेवाओं के साथ-साथ आण्विक निदान भी प्रदान करती है।
 
उपचार:
 
कार्यक्रम के अंतर्गत अगला चरण रोगी अनुकूल प्रणाली और सामाजिक सहयोग से देखभाल प्राप्त करने वाले टीबी के सभी रोगियों के लिए पर्याप्त एंटी टीबी उपचार की शुरूआत और निरंतरता है। प्रत्यक्ष प्रेक्षित उपचार (डॉट) के सहयोग से टीबी के सभी मामलों में नियमित निश्चित खुराक के संयोजन (एफडीसी) में नि:शुल्क टीबी की दवाओं के प्रावधान की सलाह दी जाती है।
 
(डाट्स सही समय पर रोगी के दवा लेने की देखरेख करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा अनुपालना सुधारने की एक तकनीक है। उपचार अवलोकनकर्त्ता को स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता होने की आवश्यकता नहीं है, लेकिन वह एक मित्र, रिश्तेदार या व्यक्ति हो सकता है, जो कि उपचार निरीक्षक या सहायक के रूप में काम करता है। यदि उपचार अपूर्ण है, तो रोगियों को ठीक नहीं किया जा सकता है तथा दवा प्रतिरोध (ड्रग रेसिस्टेंस) विकसित हो सकती है)।
 
रिफाम्पिसिन रेजिस्टेंस (प्रतिरोध) के लिए सभी रोगियों की स्क्रीनिंग/जांच (और जहां अतिरिक्त दवा) की जाती है। दवा-संवेदनशील टीबी (ड्रग सेंसिटिव टीबी), फस्ट लाइन एंटी-ट्यूबरक्युलोसिस ड्रग के संयोजन की नियमित निश्चित खुराक (एफडीसी) टीबी के सभी प्रकारों और सभी उम्र में  उचित अनुपात में दी जानी चाहिए। तीव्र चरण में चार एफडीसीएस दवाओं के साथ ड्रग सेंसिटिव का फस्ट लाइन उपचार दो महीनों (आठ सप्ताह) तक दिया जाता है तथा अगले चरण में एफडीसीएस दवाओं के साथ संयोजन सौलह महीनों तक दिया जाता है।
 
टीबी के नए मामलों के लिए तीव्र चरण (आईपी) के उपचार में नियमित आइसोनियज़िड (आईएनएच), रिफाम्पिसिन, पायराज़ीनामाईड, एथेमब्युटोल (एचआरजेडई) आठ सप्ताह तक दिया जाता है तथा अगले चरण में तीन दवाएं एफडीसीएस- रिफाम्पिसिन, आइसोनियज़िड और एथेमब्युटोल (एचआरई) सौलह सप्ताह तक दी जाती है।
 
टीबी के पहले उपचारित मामलों में तीव्र चरण बारह सप्ताह का है, जिसमें आठ सप्ताह तक चार दवाओं (आईएनएच, रिफाम्पिसिन, पायराज़ीनामाईड और एथेमब्युटोल) के साथ-साथ इंजेक्शन स्ट्रेप्टोमाइसिन दिया जाता है तथा आठ सप्ताह के बाद सही अनुपात के अनुसार नियमित ख़ुराक में चार दवाएं (आईएनएच,रिफाम्पिसिन, पायराज़ीनामाईड और एथेमब्युटोल) दी जाती है। 
 
निरंतरता के चरण में रिफाम्पिसिन, आईएनएच और एथेमब्युटोल की नियमित ख़ुराक को अगले बीस सप्ताह तक दिया जाता है। नए और पहले उपचारित किए गए मामलों में निरंतरता चरण को चिकित्सक के नैदानिक निर्णय के आधार पर टीबी, अस्थि-पंजर-संबंधी टीबी जैसे कुछ प्रकारों में बारह से चौबीस सप्ताहों तक बढ़ाया जा सकता है।
 
पुनः उपचार के लिए रोगी की पात्रता त्वरित आणविक परीक्षण (रैपिड मोलिक्यूलर टेस्ट) या दवा संवेदनशीलता (ड्रग सेसिप्टबिलटी टेस्ट) परीक्षण कम से कम रिफाम्पिसिन रेजिस्टेंस और आइसोनियज़िड रेजिस्टेंस स्टेट्स को निर्धारित करने के लिए किया जाना चाहिए । 
 
दवा संवेदनशीलता (ड्रग सेसिप्टबिलटी) रूपरेखा के आधार पर यदि कोई प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) नहीं है, तो मानक प्रथम-पंक्ति चिकित्सीय उपचार का निर्धारित कोर्स (2 एचआरजेडई/4एचआर)  को दोबारा दिया जा सकता है; तथा यदि रिफाम्पिसिन प्रतिरोध (रेसिस्टेंस) उपस्थित है, तो डब्ल्यूएचओ के हालिया दवा प्रतिरोधी टीबी उपचार के दिशा-निर्देशों के अनुसार एमडीआर-टीबी (मल्टी ड्रग रेसिस्टेंस टीबी) के लिए लघु चिकित्सीय उपचार का निर्धारित कोर्स को दिया जाता है।
 
आरएनटीसीपी ने एमडीआर-टीबी के लिए बेडाक्विलाइन सीएपी की शुरूआत की है, जिसमें वर्ष 2016 तक छह सीमित साइटों के माध्यम से पहुंचा जा सकता था तथा इस योजना को वर्ष 2017-2020 तक सारे देश के लिए कर दिया जाएगा।
 
निक्षय पुरस्कार योजना: यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) के अंतर्गत केंद्र प्रायोजित योजना है, हर सूचित टीबी रोगी, जो कि एंटी-टीबी उपचार ले रहा है, उसे पोषण सहायता के लिए 500/- रुपये प्रति माह का वित्तीय प्रोत्साहन (इंसेंटिव) प्रदान किया जाता है। लाभार्थी के बैंक खाते में प्रोत्साहन (इंसेंटिव) प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) योजना के माध्यम से वितरित किए जाते हैं।
 
आईसीटी आधारित उपचार सहयोगात्मक प्रणाली के लिए उपयोगी विकल्प:
 
  • मोबाइल आधारित "हाथ में दवा (पिल्ल-इन-हैंड)" अनुपालना के लिए निगरानी उपकरण
  • इंटरएक्टिव वॉयस रिस्पांस (संवादात्मक उच्चारित प्रतिक्रिया) (आईवीआर), एसएमएस अनुस्मारक। 
  • जीएसएम संपर्क और दबाव सेंसर के साथ डिजाइन किए गए इलेक्ट्रॉनिक गोली के बक्से या स्ट्रिप्स।
  • रोगी अनुपालना टूलकिट: वीडियो, ऑडियो या लिखित संदेश के माध्यम से रोगी उपचार अनुपालना रिपोर्ट के लिए मोबाइल ऐप।
  • स्वचालित गोली/पिल्ल प्रणाली।
  • नवीन आईसीटी सक्षम स्मार्ट कार्ड एसएमएस गेटवे।
 
एनएसपी के अंतर्गत निम्नलिखित जनसंख्या में टीबी नियंत्रण गतिविधियां बढ़ाना
 
  • टीबी एचआईवी
  • मधुमेह, तंबाकू उपयोग और अल्कोहल पर निर्भरता।
  • गरीब, कमजोर, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े समुदाय।
  • पहाड़ी और असुगम क्षेत्रों में टीबी नियंत्रण।
  • मादक पदार्थ पर निर्भरता और यौन विपरीतलिंगी। 
  • टीबी और गर्भावस्था।
  • बाल समुदाय (0 से 18 आयु वर्ग के बच्चे)।
  • जेल के कैदी और कर्मचारी।
  • अतिरिक्त फुफ्फुसीय टीबी प्रबंधन।
 
रोकथाम
 
अतिसंवेदनशील जनसंख्या में टीबी की रोकथाम के विभिन्न उपायों इस प्रकार से है:
 
  • स्वास्थ्य देखभाल सुविधा केद्रों में वायु जनित संक्रमण नियंत्रण उपाय बढ़ाना।
  • बैक्टीरियोलॉजिकल-प्रामाणित मामलों के संपर्क में अंतर्निहित टीबी संक्रमण के लिए उपचार।
  • अन्त: क्षेत्रीय दृष्टिकोण के माध्यम से टीबी के सामाजिक कारकों को जानें।
 
क) वायु जनित संक्रमण नियंत्रण के उपाय- ‘टीबी संक्रमण नियंत्रण’ उपायों का संयोजन है जिसका उद्देश्य जनसंख्या और अस्पताल तथा दूसरों में टीबी संचारण के ज़ोखिम को कम करना है। संक्रमण नियंत्रण का आधार इस प्रकार से है:
 
  • शुरुआती में टीबी का पता लगाना  और टीबी रोगियों का उचित प्रबंधन।
  • रोगी के बलगम का उचित निपटन और उसके खांसने के बारे में स्वास्थ्य शिक्षा एवं जागरूकता। खांसने का मतलब है कि खांसते या छींकते समय नाक और मुंह को ढकना। यह टिशू से किया जा सकता है या यदि व्यक्ति के पास टिशू नहीं है, तो वे अपनी ऊपरी आस्तीन या कोहनी के ऊपर खांसी या छींक सकता हैं, लेकिन उन्हें अपने हाथों पर खांसना या छींकना नहीं चाहिए। टिशू का सुरक्षित निपटान किया जाना चाहिए।
  • घर पर्याप्त हवादार होना चाहिए।
  • स्वास्थ्य देखभाल सुविधा केंद्रों और दूसरों में वायु जनित संक्रमण नियंत्रण उपायों का उचित उपयोग
 
ख) संपर्क पर नज़र रखना (ट्रेसिंग)- किसी भी समय परिवेश (परिवार, समुदाय एवं समूह) में संचारित मामले (निदान या उपचार के दौरान) से संचारण हो सकता है इसलिए टीबी रोगियों के सभी संपर्कों को देखा जाना चाहिए।
 
इन समूहों में निम्नलिखित शामिल हैं:
 
  • सभी नज़दीकी संपर्क, विशेषकर घरेलू संपर्क (घर में होने वाले संपर्क)।
  • टीबी बाल रोगियों के मामले में बच्चे के घर में किसी भी सक्रिय टीबी मामले की खोज के लिए परिवेश के संपर्क पर नज़र रखी जानी चाहिए।
  • टीबी संक्रमण के लिए अतिसंवेदनशीलता वाले संपर्कों पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए।
 
ग) आइसोनियाजिड निवारक थेरेपी (आईपीटी)- <6 वर्ष की आयु के बच्चे के लिए निवारक थेरेपी की सिफ़ारिश की जाती है, जो कि टीबी रोगी के नज़दीक संपर्क में हैं। सक्रिय टीबी से पीड़ित बच्चे का परीक्षण चिकित्सा अधिकारी/बाल रोग विशेषज्ञ द्वारा किया जाता है तथा उसके बाद सक्रिय टीबी को छोड़कर उसे (बच्चा/बच्ची) आईएनएच निवारक थेरेपी दी जाती है।
 
उपरोक्त के अतिरिक्त, आईएनएच निवारक थेरेपी निम्नलिखित स्थितियों में दी जाती है:
 
  • सभी एचआईवी संक्रमित बच्चों के लिए, जिनमें संक्रामक टीबी का संपर्क पाया गया है या ट्यूबरकुलिन त्वचा परीक्षण (टीएसटी) सकारात्मक/पॉजिटिव (> = 5 मिमी प्रेरण) है, लेकिन वे सक्रिय टीबी रोग से पीड़ित नहीं है।
  • सभी टीएसटी सकारात्मक बच्चे, जो कि इम्युनोसप्रेसिव थेरेपी ले रहे हैं (उदाहरण के लिए नेफ्रोटिक सिंड्रोम, तीव्र ल्यूकेमिया आदि से पीड़ित बच्चे)।
  • गर्भावस्था में टीबी से पीड़ित होने वाली मां से पैदा होने वाले बच्चे को छह महीने तक प्रोफेलेक्सिस दिया जाता है, बेशक बच्चे को जन्मजात टीबी न हो, लेकिन बच्चे को मां से होने वाले टीबी संक्रमण से बचाने के लिए प्रोफेलेक्सिस देना जरूरी है। बीसीजी टीकाकरण जन्म पर दिया जाता है हालांकि आईएनएच निवारक थेरेपी की योजना बनाई गयी हो।
 
प्रमाणित डीआर-टीबी (ड्रग रेसिस्टेंस) के साथ सक्रिय टीबी के संकेत और लक्षणों के लिए टीबी के नज़दीक मामलों की नज़दीकी से निगरानी की जानी चाहिए, क्योंकि इन मामलों में आइसोनियाजिड प्रोफेलेक्टिक नहीं हो सकता है।
 
घ) बीसीजी टीकाकरण- यह जन्म पर या यथाशीघ्र एक वर्ष की आयु तक दिया जाता है। बच्चों में, बीसीजी टीकाकरण का मेनिनजाइटिस और टीबी के खिलाफ सुरक्षित प्रभाव है।
 
ड़) सामाजिक कारक जानें- टीबी के चिंहित सामाजिक कारकों जैसे कि गरीबी, कुपोषण, शहरीकरण, घर में होने वाले को वायु प्रदूषण के लिए अंतर विभागीय/मंत्रालय आधारित सहयोगात्मक गतिविधियों और कार्यक्रमों की आवश्यक होती है तथा इन कार्यक्रमों के अंतर्गत उपरोक्त विभागों का संयोजन किया जाता है।
 
निर्माण
 
राष्ट्रीय सामरिक योजना वर्ष 2017-2025 के अंतर्गत टीबी नियंत्रण के लिए मज़बूत स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता विकसित करने के साथ मानव संसाधनों और संस्थानों को सशक्त करने, नीतियों को सक्षम और सुदृढ़ करने की सिफ़ारिश की जाती है।

एसटीडी नियंत्रण कार्यक्रम
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 1 अप्रैल, 2021 से 31 मार्च, 2026 तक भारत सरकार द्वारा पूरी तरह से वित्त पोषित एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना राष्ट्रीय एड्स और एसटीडी नियंत्रण कार्यक्रम को जारी रखने की मंजूरी दे दी है,


सबसे पहले की पहल, फिर क्यों बर्थ कंट्रोल में फिसड्डी?
भारत दुनिया का पहला ऐसा देश है, जिसने आज से 70 साल पहले यानी वर्ष 1952 में ही राष्ट्रीय परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू कर दिया था। इस कार्यक्रम का उद्देश्य - जनसंख्या को बढ़ने से रोकना, प्रजनन स्वास्थ्य को बढ़ावा देना और मातृ-शिशु व बाल मृत्यु दर एवं रोग दर में कमी लाना था। वहीं वर्ष 1930 के दशक में डायफ्राम, कंडोम, गर्भनिरोधक गोलियां और इंजेक्शन जैसे कई उत्पाद भारतीय बाजार में जगह बना चुके थे, लेकिन जागरुकता की कमी के चलते जनसंख्या नियंत्रित नहीं की जा सकी।

कांग्रेस ने दिया था- 'हम दो -हमारे दो' का नारा
असम और यूपी में जनसंख्या नियंत्रण कानून का मसौदा पेश किए जाने के बाद कांग्रेसी नेता देवव्रत सैकिया ने दावा किया, ''यह कोई नई बात नहीं है। वर्ष 1976 में 'हम दो- हमारे दो' का नारा कांग्रेस पार्टी ने दिया था। लोगों से इस नीति को अपनाने की अपील की थी। जबरदस्ती नहीं की थी। ये नारा जागरुकता के लिए था ताकि जनता बढ़ती आबादी की गंभीरता को समझे और खुद ही इसे नियंत्रित करने पर काम करें।''

बता दें कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के पांच सूत्रीय कार्यक्रम में नसबंदी भी शामिल था। देश की बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने के लिए इंदिरा सरकार ने 'हम दो, हमारे दो' का नारा दिया था। हालांकि, इंदिरा गांधी के जनसंख्या नियंत्रण अभियान पर सवाल भी उठे। सरकार पर लोगों की जबरन नसबंदी कराने के आरोप भी लगे थे।

जनसंख्या नियंत्रण कानून की कितनी जरूरत?
देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून को लेकर बहस जारी है। ऐसे में यह देखना है कि क्या देश को सच में जनसंख्या नियंत्रण कानून की जरूरत है? स्वास्थ्य मंत्रालय की वर्ष 2019-20 की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार, मणिपुर और मेघालय को छोड़कर अन्य राज्यों में प्रजनन दर 2.1 से नीचे आ गई है। वर्ष 2025 तक देश में प्रजनन दर गिरकर 1.9 हो जाएगी, जबकि जनसंख्या स्थिरता के लिए प्रजनन दर का 2.1 होना जरूरी है।

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के मुताबिक, देश में अभी 26.8 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी जाती है, जिससे उनके प्रजनन की उम्र 15-49 के बीच कई बार मां बनने का खतरा रहता है। इनमें से 6.1 फीसदी लड़कियां तो 15-19 साल के बीच में ही मां बन जाती हैं। उनके बच्चों के बीच के अंतर को बढ़ाने और बच्चों की संख्या सीमित रखने के लिए जनसंख्या नियंत्रण नीति की जरूरत है।

विशेषज्ञों के मुताबिक, बच्चों के जन्म के बीच अंतराल बढ़ाने के लिए लोगों को जागरूक करें, यह जनसंख्या को नियंत्रित करने और शिशु मृत्यु दर को रोकने में मददगार साबित होगा।

जागरुकता को बनाया हथियार
विशेषज्ञों का कहना है कि चीन और जापान ने सख्त कानून बनाकर तेजी से बढ़ती आबादी पर ब्रेक लगाई, लेकिन इसका असर यह हुआ कि वहां प्रजनन दर में कमी आने के साथ ही तेजी से बुजुर्गों की संख्या बढ़ गई। इसके बाद चीन, जापान और अन्य यूरोपीय देशों को अपनी चाइल्ड पॉलिसी में बदलाव करना पड़ा।​​​​​​​

सेक्स एजुकेशन हो सकती है मददगार
सेक्स एजुकेशन देश में जनसंख्या नियंत्रण का सबसे अच्छा और सबसे सही तरीका हो सकता है। इसके लिए 10वीं और 12वीं के छात्रों को इंसानी प्रजनन की पूरी जानकारी होनी चाहिए। सेक्स एजुकेशन के बिना जनसंख्या नियंत्रण के सारे उपाय असफल ही साबित होंगे, लेकिन समस्या यह है कि आज भी हमारे समाज में सेक्स पर खुलकर बात नहीं होती है, तो फिर जागरुकता कहां से आएगी।

जनसंख्या नियंत्रण कानून से क्या हो सकते हैं नुकसान

  • एक्सपर्ट मानते हैं कि अगर कानून लागू होता है, तो यह लिंग पहचान कर गर्भपात कराने के मामलों में बढ़ोतरी कर सकता है।
  • लड़का और लड़कियों के औसत अनुपात की खाई को और बढ़ा सकता है, जिससे महिलाओं की तस्करी और जबरन कराए जाने वाले देह व्यापार के मामले भी बढ़ सकते हैं।
  • देश में उम्र-दराज लोगों की संख्या बढ़ जाएगी, जिससे कामकाज पर असर होगा।
  • महिलाएं गर्भपात के लिए अवैध दवाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं, जिनका बुरा प्रभाव उन्हें जीवन भर झेलने पड़ सकता है।
  • गर्भपात कराने के लिए फर्जी डॉक्टर के चंगुल में भी फंस सकती हैं, जिससे उनकी प्रजनन क्षमता खत्म होने का भी डर रहेगा।


भारत को आजादी मिलने के बाद लागू विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं मे देश की जनसंख्या वृद्धि की समस्या को हल करने के लिये परिवार को नियोजित करने के प्रयास किये जा रहे है। जून 1977 से पूर्व तक इन प्रयासों को सीमित रखने को परिवार नियोजन कार्यक्रमों के अंतर्गत सम्मिलित किया जाता था, लेकिन जून 1977 मे देश मे भारतीय जनता पार्टी का शासन होने पर परिवार नियोजन कार्यक्रम का नाम बदलकर परिवार कल्याण कार्यक्रम कर दिया गया है।

परिवार कल्याण का अर्थ 

परिवार कल्याण का अर्थ है, परिवार को नियोजित करना या सीमित रखना। परिवार से अभिप्राय- पति, पत्नी और उनके बच्चे। परिवार कल्याण का आशय है कि विवाह के बाद पति-पत्नी आपस मे मिलकर सलाह-मशविरा करके, यह तय करे कि घर मे कितने बच्चे होगे, कब-कब होगे तथा परिवार मे कब और बच्चे नही चाहिए। बच्चो की संख्या को दो तक सीमित रखा जाये तो अच्छा है। ऐसे परिवारों को नियोजित परिवार कहा जायेगा। वर्तमान मे भारत की जनसंख्या की बहुलता और उससे उत्पन्न समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए परिवारो को एक बच्चे तक सीमित रखने की आवश्यकता है। परिवार नियोजन मूल रूप से प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक परिवार तथा देश की बेहतरी और खुशहाली की कुंजी है।

भारत मे परिवार कल्याण कार्यक्रम समय की सबसे बड़ी आवश्यकता बन गया है। वर्तमान मे राजकीय प्रयासों और लोगो की जागरूकता के कारण परिवार कल्याण कार्यक्रम को बढ़ावा मिला और यह लोगों का जाना-पहचाना कार्यक्रम बन गया। भारत मे परिवार नियोजन का प्रतीक लाल त्रिकोण सर्वाधिक चर्चित है। साथ ही छोटे परिवार के बारे मे आम लोगों के मन मे चेतना जागृत हुई। यह अलग बात है कि आज भी लोगो की मनोवृत्ति अधिक बच्ची की है।

परिवार कल्याण कार्यक्रम के उद्देश्य 

परिवार नियोजन कार्यक्रम एक परिवार कल्याण कार्यक्रम है जिसे अपनाकर व्यक्ति परिवार को सीमित, अविवेकपूर्ण मातृत्व पर रोक तथा संतानों का समुचित पालन-पोषण कर सकता है। परिवार नियोजन अथवा परिवार कल्याण का उद्देश्य है, बच्चे का जन्म इच्छा से हो चूक से नही, सोच समझकर हो, संयोग से नही।  भारत मे परिवार कल्याण कार्यक्रम के उद्देश्य निम्न प्रकार है--

1. परिवार कल्याण कार्यक्रम का उद्देश्य सीमित परिवार के लिये इच्छा शक्ति जागृत करना है। एक परिवार मे संतानों की संख्या दो तक सीमित हो ताकि उनका भली-भाँति पालन पोषण किया जा सके।

2. संतानोत्पत्ति के बीच अंतराल हो जिससे मां के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव न पड़े और बच्चे की देखभाल भी उचित रूप से हो सके।

3. संतानोत्पत्ति नियंत्रण के तरीको की जानकारी देना तथा संतानोत्पत्ति नियंत्रण के सस्ते साधन मुहैया कराना।

4. परिवार नियोजन के तरीको की खोज व अनुसंधान कार्यो को प्रोत्साहन देना।

5. जनसंख्या की विस्फोटक स्थिति को नियंत्रित करना।

6. जनसंख्या मे गुणात्मक सुधार करना।

7. परिवार कल्याण कार्यक्रम से परिवारों की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना।


पोलियो-मुक्त होने के बावजूद भारत में पल्स पोलियो अभियान की आवश्यकता क्यों?

  • 05 Feb 2018
  •  
  • 9 min read

चर्चा में क्यों?

  • 28 जनवरी को भारत ने अपने पल्स पोलिओ अभियान- 2018 के दो राष्ट्रीय चरणों में से पहले चरण को कार्यान्वित किया। दूसरे चरण का क्रियान्वयन 11 मार्च को किया जाएगा।
  • इन दो अभियानों के तहत 5 वर्ष से कम आयु वाले लगभग 17 करोड़ बच्चों तक ओरल पोलियो वैक्सीन (Oral Polio Vaccine-OPV ) की पहुँच सुनिश्चित करने के प्रयास किये जाएंगे।

पोलियो (पोलियोमाइलिटिस)

  • यह एक संक्रामक रोग है जो एक ऐसे वायरस से उत्‍पन्‍न होता है, जो गले तथा आंत में रहता है। पोलियोमाइलिटिस एक ग्रीक शब्‍द पोलियो से आया है जिसका अर्थ है ''भूरा'', माइलियोस का अर्थ है मेरु रज्‍जु और आइटिस का अर्थ है प्रज्‍जवलन।
  • यह आम तौर पर एक व्‍यक्ति से दूसरे व्‍यक्ति में संक्रमित व्‍यक्ति के मल के माध्यम से फैलता है। यह नाक और मुंह के स्राव से भी फैलता है।
  • हालाँकि, यह मुख्यतः एक से पाँच वर्ष की आयु के बच्चों को ही प्रभावित करता है, क्योंकि उनमें रोग प्रतिरोधक क्षमता पूरी तरह विकसित नहीं हुई होती है। 
  • पोलियो का पहला टीका जोनास सौल्क द्वारा विकसित किया गया था।
  • गौरतलब है कि दक्षिण-पूर्व एशिया सहित भारत को वर्ष 2014 में पोलियो-मुक्त घोषित किया गया था।
  • पोलियो-मुक्त होने के बावजूद भारतीय नीति-निर्माताओं द्वारा पोलियो पर इतना ध्यान इसलिये दिया जा रहा है क्योंकि पोलियो वायरस के भारत में वापस आने का खतरा है।

भारत में पल्स पोलियो अभियान की आवश्यकता 

  • प्रमुखतया इसकी आवश्यकता इसलिये है क्योंकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अभी भी पोलियो वायरस सक्रिय है। यह पोलियो वायरस इन देशों से आने वाले वयस्कों के माध्यम से आसानी से भारत में प्रवेश कर सकता है।
  • WHO के मुताबिक, 2016 में पाकिस्तान ने 20 वन्य पोलियो वायरस के मामले दर्ज किये जबकि अफगानिस्तान में 13 मामले सामने आए थे। WHO ने यह भी कहा है कि अंतरराष्ट्रीय यात्रियों से वायरस फैलने का खतरा अधिक रहता है।
  • चीन के पोलियो मुक्त होने के 10 साल बाद 2011 में झिंजियांग प्रांत में लकवाग्रस्त पोलियो के 21 मामले और दो मौतों की खबरें सामने आई थी। अनुसंधान करने पर चीन में इस वायरस का प्रवेश पाकिस्तान से पाया गया।
  • 2009 में भारत से ताजिकिस्तान में इस वायरस के प्रवेश के कारण वहाँ पर पोलियो के 587 मामले सामने आए।
  • वर्तमान में अन्य देशों से पोलियो वायरस के खिलाफ भारत का एकमात्र बचाव इसका सशक्त और सुस्पष्ट टीकाकरण कार्यक्रम है। नवजात शिशुओं के बीच टीकाकरण का अल्प अंतराल भी भारत में इस विषाणु के प्रवेश के लिये पर्याप्त हो सकता है।
  • इसके अतिरिक्त पोलियो वायरस के वापस आने का दूसरा खतरा स्वयं OPV है। इस वैक्सीन में दुर्बल लेकिन जीवित पोलियो वायरस का प्रयोग किया जाता है जो दुर्लभ मामलों में लकवाग्रस्त पोलियो (Paralytic Polio) का कारण बन सकता है।
  • चूँकि टीका-जनित वायरस प्रतिरक्षित (Immunized) बच्चों द्वारा उत्सर्जित किया जाता है इसलिये यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भी फैल सकता है। इससे टीका-व्युत्पन्न पोलियोवायरस (vaccine-derived poliovirus-VDPV) का खतरा बढ़ जाता है।
  • बाह्य कारणों से होने वाले वन्य पोलियो (Wild Polio) की तरह ही VPDV भी कम प्रतिरक्षित (Under-Immunised) बच्चो को प्रभावित कर सकता है।
  • इसी कारण दुनिया भर में पोलियो का उन्मूलन करने के लिये ओपीवी को निष्क्रिय पोलियो वैक्सीन (Inactivated Polio Vaccine-IPV) से प्रतिस्थापित करना आवश्यक है।
  • IPV के कारण VPDV की समस्या नहीं होती और यह पोलियो वायरस के विरूद्ध बच्चों की समान रूप से प्रतिरक्षा करता है।

पल्स पोलियो अभियान की पृष्ठभूमि 

  • भारतीय शोधकर्ताओं ने 1980 के दशक में 'पल्स' प्रतिरक्षण की रणनीति के साथ प्रयोग करना शुरू कर दिया था। उस समय OPV भारत के टीकाकरण पर विस्तारित कार्यक्रम का एक हिस्सा था, लेकिन प्रतिदिन लगभग 1,000 बच्चों के विकलांग होने के साथ ही पोलियो के  बोझ में कमी नहीं हुई।
  • इसी पृष्ठभूमि में वेल्लोर स्थित वाइरोलोजिस्ट टी. जैकब जॉन के नेतृत्व में शोधकर्ताओं के एक समूह ने पल्स अभियान चलाने की संभावनाओं पर विचार किया गया।
  • नियमित टीकाकरण में माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को क्लिनिक पर लाने का इंतजार करना पड़ता है और कुछ माता-पिता प्राय: इसकी उपेक्षा भी कर देते हैं।
  • पल्स अभियान एक ही बार में पूरी आबादी को वैक्सीन की एक 'पल्स' देने का प्रयास करता है। डॉ. जॉन के अनुसार, नियमित टीकाकरण विकसित देशों में सफल रहा क्योंकि वहा के लोगो में टीकाकरण को लेकर जागरूकता का उच्च स्तर रहा है। लेकिन भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को देखते हुए यहाँ एक अलग रणनीति की जरूरत थी।

अभियान की शुरुआत 

  • 1978 में वेल्लोर में एक प्रारंभिक प्रयोग से पता चला है कि टीके के अधिक प्रभावी नहीं होने के बावजूद इसने बच्चो की एक बड़ी संख्या को मज़बूत प्रतिरक्षा प्रदान की।
  • इसका प्रमुख कारण यह था कि वैक्सीन पल्सेज़ ने समुदाय में व्याप्त वन्य पोलियो वायरस को वैक्सीन-वायरस ने प्रतिस्थापित कर दिया।
  • वेल्लोर, पल्स रणनीति के ज़रिये पोलियो मुक्त बनने वाला पहला भारतीय शहर था और शेष भारत में इस रणनीति को 1995 में अपनाया गया।

पल्स पोलियो प्रतिरक्षण अभियान 

  • भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन वैश्विक पोलियो उन्‍मूलन प्रयास के परिणामस्‍वरूप 1995 में पल्‍स पोलियो टीकाकरण (PPI) कार्यक्रम आरंभ किया।
  • इस कार्यक्रम के तहत 5 वर्ष से कम आयु के सभी बच्‍चों को पोलियो समाप्‍त होने तक हर वर्ष दिसम्‍बर और जनवरी माह में ओरल पोलियो टीके (OPV) की दो खुराकें दी जाती हैं।
  • यह अभियान सफल सिद्ध हुआ है और भारत में पोलियोमाइलिटिस की दर में काफी कमी आई है।
  • भारत के स्वास्थ्य मंत्रलय, विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ और रोटरी इंटरनेशनल जैसी संस्थाओं ने इसकी सफलता में अहम भूमिका निभायीं।

आगे की राह 

  • वन्‍य पोलियो वायरस के तीन प्रकारों में से एक – वन्‍य पोलियो वायरस प्रकार 2 (Wild Poliovirus 2 –WPV 2) दुनिया भर से समाप्‍त कर दिया गया है।
  • WPV 2 का अंतिम मामला अक्‍तूबर, 1999 में अलीगढ़ (भारत) में देखा गया था।
  • पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सक्रिय दो अन्य वायरस WPV-1 और WPV-3 हैं। एक बार इन दो वायरसों की रोकथाम कर लेने के बाद OPV को चरणबद्ध तरीके से IPV से प्रतिस्थापित किया जाएगा।



























टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

लघु शोध प्रबन्ध प्रकाशित

असाइनमेंट: शारीरिक शिक्षा एवं योग, माइनर—3, सेमेस्टर—4

Assignment: Physical Education and Yoga, Minor—3, Semester—4